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________________ प्रवचन-सारोद्धार ४२१ B00 .00 २. मिच्छाकार-मिथ्या, वितथ व अनृत एकार्थक हैं। समिति, गुप्तिरूप संयम में उपयोग रखते हुए भी दोष लग जाये तो तत्काल 'मिच्छामि दुक्कडं' देना। जैसे खुले मुँह बोलना या छींकना दोष रूप है अत: ऐसा करने पर तुरन्त मिच्छामि दुक्कडं देना चाहिये। यदि जान-बूझकर दोषों का सेवन किया हो या बार-बार दोषों का सेवन किया हो तो मिच्छामि दुक्कडं से दोषों की शुद्धि नहीं हो सकती ।। -७६३ ॥ ३. तथाकार-कल्प, विधि एवं आचार परस्पर पर्यायवाची है। कल्प से विपरीत अकल्प है। जिनकल्प व स्थविरकल्प ये दो कल्प हैं। चरक, बौद्ध आदि का आचार अकल्प है। जिन्हें कल्प व अकल्प दोनों का परिपक्व ज्ञान है (यह गुरु की ज्ञानसंपदा का सूचक है), जो पाँच महाव्रती हैं (यह मूल-गुण संपदा का सूचक है), जो सतरह प्रकार के संयम व तप से सम्पन्न हैं (यह उत्तरगुण-संपदा का सूचक है), ऐसे गुरु के वचन व समाचारी शिक्षण को यह कहते हुए स्वीकार करना कि-जैसे आपने कहा वह वैसा ही है ॥ ७६४ ।। ४. आवश्यिकी-अवश्य करने योग्य क्रिया आवश्यिकी है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की रक्षा, वृद्धि और निर्विघ्न पालन के लिये साधु को बाहर जाना आवश्यक है। इन कारणों से बाहर जाने वाला मुनि उपाश्रय से निकलते समय ‘आवस्सही' कहकर ही बाहर जाये। इससे साधु के निष्कारण गमन का निषेध सूचित होता है। ५. निषेधिका-रत्नत्रय का कार्य पूर्णकर वसति में प्रवेश करते हुए गमनागमनादि शारीरिक क्रिया के निषेधरूप निस्सीहि कहना चाहिये । मन्दिर में प्रवेश करते समय 'निस्सीहि' और निकलते समय 'आवस्सही' कहना चाहिये। आवस्सही = आवश्यक कार्य से बाहर जा रहा हूँ। निस्सीही = जाने आने का निषेध ।। ७६५ ।। ६. आपृच्छा--कोई भी कार्य उपस्थित होने पर गुरु से पूछना कि 'भगवन् ! यह कार्य मैं करूँ?' ७. प्रतिपृच्छा—पहले गुरु ने कहा था कि 'अमुक समय यह काम करना है, जब काम करने का समय आये तब शिष्य गुरु से पुन: पूछे कि 'भगवन् ! पहले इस काम के लिये आज्ञा दी थी, अब समय आ गया है, वह काम करूं या नहीं?' हो सकता है कि वह कार्य अन्य द्वारा हो चुका हो अथवा अब उस काम की उपयोगिता न रही हो। अथवा गुरु द्वारा किसी काम के लिये शिष्य को आज्ञा दे देने पर भी करते समय गुरु को पुन: पूछना। ८. छन्दना-गौचरी लाने के बाद अन्य मुनियों को विनती करना कि मैं “आहारादि लाया हूँ यदि आपके उपयुक्त हो तो अवश्य इच्छापूर्वक आहार ग्रहण करें।" ९. निमन्त्रण गौचरी जाने से पूर्व साधुओं को निमन्त्रण दे कि “मैं आपके योग्य आहार आदि ले आऊँगा" ||७६६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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