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जघन्यत: इसका काल छ: महीना और उत्कृष्टत: बारह वर्ष है ।। ७५६ ॥
कौन किस प्रायश्चित्त का अधिकारी है ?
- पारांचित पर्यन्त
- अनवस्थाप्य पर्यन्त (पारांचिक योग्य दोषों में भी)
- मूल- पर्यंत (पारांचिक या अनवस्थाप्य के योग्य दोषों में भी) ।। ७५७ ॥
आचार्य
उपाध्याय
सामान्य साधु
१०. प्रायश्चित्त की सीमा
१. पारांचित और २. अनवस्थाप्य चौदह पूर्वी और प्रथम संहनन के काल में ही देय है (इस समय इन दोनों का व्युच्छेद हो जाने से ये प्रायश्चित्त भी विच्छिन्न ही समझना)। शेष आठ प्रायश्चित्त यावत् तीर्थ रहते हैं ।
प्रश्न- पूर्वोक्त १० प्रायश्चित्त शासन के अन्त तक रहेंगे या नहीं ?
उत्तर - जब तक १४ पूर्वधर या प्रथम संघयणी थे तब तक ही १० प्रायश्चित्त का विधान था । किन्तु वर्तमान में दोनों का विच्छेद हो चुका है अतः अनवस्थाप्य व पारांचित इन दोनों प्रायश्चित्त का भी विच्छेद ही समझना ।
अनवस्थाप्य और पारांचित के विच्छेद के पश्चात् आलोचना प्रायश्चित्त से लेकर मूल प्रायश्चित्त पर्यन्त के ८ प्रायश्चित्त अन्तिम युगप्रधान दुप्पसहसूरि के समय तक रहेंगे। उनका काल - धर्म होने के साथ ही तीर्थ और चारित्र भी नष्ट हो जायेंगे । ७५८ ॥
९९ द्वार :
ओघ - समाचारी
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समाचारी शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरित क्रिया-कलाप ।
ओघ समाचारी =
=
१०० द्वार :
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द्वार ९८-१००
सामायारी ओहंम ओहनिज्जुत्तिजपियं सव्वं । -गाथार्थ
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ओघनियुक्ति में वर्णित समाचारी ओघ समाचारी है। -विवेचन
ओघनिर्युक्ति में निर्दिष्ट पडिलेहण, प्रमार्जनादि रूप क्रिया-कलाप ।
पदविभाग- समाचारी
सा पयविभागसामायारी जा छेयगंथुत्ता ॥७५९ ॥
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