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________________ प्रवचन - सारोद्धार छः मास तक लगातार तप करने वाले या विकृष्टतपी मुनि तपरूप प्रायश्चित्त देने पर शायद यह सोचे कि 'मैं तो महान् तपस्वी हूँ, छोटे-छोटे तप मेरे लिये क्या कठिन हैं?' तो उसे छेद प्रायश्चित्त ही देना चाहिये । अथवा जो तप करने में असमर्थ हो, ग्लान- बाल या वृद्ध हो, जिसे तप की रुचि न हो, निष्कारण अपवाद सेवन करने वाला हो उसे भी छेद प्रायश्चित्त ही देना चाहिये ॥ ७५४ ॥ ८. निर्दयतापूर्वक अथवा मायापूर्वक पुनः पुनः जीव हिंसा, सहर्ष असत्य, चोरी, मैथुन या परिग्रह रूप पाप सेवन करने वाले का सम्पूर्ण दीक्षा - पर्याय छेदकर उसे पुन: दीक्षा देना चाहिये । यह मूल प्रायश्चित्त है 1 ९. स्व और पर की मृत्यु से निरपेक्ष बनकर मुष्टि, लाठी आदि के प्रहार द्वारा किसी स्वपक्ष (साधु) या परपक्ष (गृहस्थ ) पर अतिसंक्लिष्ट अध्यवसाय से घात करना... पीटना आदि महान् पाप करने वाला आत्मा अतिसंक्लिष्ट अध्यवसाय वाला होने से जब तक उचित तप करके आत्म-शुद्धि नहीं कर लेता तब तक उसे पुन: दीक्षा नहीं देना चाहिये । उचित तप = उठने-बैठने की शक्ति क्षीण हो जाये, ऐसा तप । ऐसे प्रायश्चित्त की स्थिति में अन्य मुनि प्रायश्चित्तधारी मुनि द्वारा निवेदन करने पर कि - हे आर्य ! मुझे उठना है, बैठना है इत्यादि, तो उसकी सेवा शुश्रूषा अवश्य करे, किन्तु उससे संभाषण नहीं करे। ऐसा तप करने के पश्चात् ही उसे पुन: दीक्षा देनी चाहिये । ४१७ • अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के दो भेद हैं (i) आशातना अनवस्थाप्य तीर्थंकर, प्रवचन, गणधर आदि का तिरस्कार करने वाले को जघन्यतः छः महीने तक और उत्कृष्टतः एक वर्ष पर्यन्त दीक्षा नहीं देना चाहिये । (ii) प्रतिसेवना - अनवस्थाप्य - साधर्मिक या अन्य धार्मिक की ताड़ना तर्जना एवं चोरी करने वाले को जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक दीक्षा नहीं देना चाहिये । अनवस्थाप्य में तप परिमाण जघन्य मध्यम ग्रीष्म १ २ शीत २ ३ वर्षा ३ ४ पारणा के दिन निर्लेप भिक्षा ग्रहण करे || ७५५ ॥ उत्कृष्ट ३ ४ Jain Education International उपवास उपवास उपवास १०. साध्वी, राजपत्नी आदि के साथ 'रतिक्रीड़ा' करने वाले अथवा मुनि / राजा आदि का वध करने वाले को यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । यह प्रायश्चित्त महासत्त्वशाली आचार्य को ही दिया जाता है, वह जिनकल्पी के सदृश चर्या का पालन करता हुआ अज्ञात - वेष में अपने गण से दो कोश दूर महान् तप करता हुआ विचरण करता है । तप द्वारा शुद्धि हो जाने के पश्चात् ही उसे दीक्षा दी जाती है, अन्यथा नहीं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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