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________________ ४१४ द्वार ९८ 200000000000000550002016300200 1443802005001 ७. तप द्वारा प्रायश्चित्त पूर्ण करने में असमर्थ मुनि की दीक्षा पर्याय का छेद करना छेद प्रायश्चित्त है ।।७५४॥ ८. जीवहिंसादि पाप करने वालों को पुन: व्रतदान करना मूल प्रायश्चित्त है। ९. संक्लिष्ट भाव से जो दूसरों को हस्त आदि के द्वारा चोट पहुँचाता है उसे तप आदि किये बिना व्रतदान नहीं किया जा सकता यह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है ॥७५५ ॥ १०. साध्वी या राजा की राणी के साथ अब्रह्म सेवन करने वाले आचार्य को अज्ञातलिंग धारण कर बारह वर्ष तक भ्रमण करने रूप जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह पारांचित प्रायश्चित्त है ।।७५६॥ उपाध्यायों को दसवें प्रायश्चित्त योग्य अपराध में नौंवा प्रायश्चित ही दिया जाता है। उनका अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त जघन्य छ: मास का तथा उत्कृष्ट बारह मास का होता है ।।७५७ ॥ चौदहपूर्वी तथा प्रथमसंघयणी आत्माओं के काल तक दस ही प्रायश्चित्त थे। इनमें से मूलपर्यंत आठ प्रायश्चित्त दुप्पसहसूरि तक रहेंगे ॥७५८ ॥ -विवेचनप्राय: = पाप, चित्त = उसकी शुद्धि करना। इसके १० भेद हैं (i) आलोचना—जैसे बच्चा अपने कार्य और अकार्य दोनों को बड़ी सरलतापूर्वक कह देता है, वैसे ही माया और मद से विमुक्त होकर गुरु के संमुख अपने पापों को प्रकट करना आलोचना है। जो प्रायश्चित्त आलोचना मात्र से हो जाता है वह प्रायश्चित्त भी कारण में कार्य के उपचार से आलोचना कहलाता है। आ = मर्यादापूर्वक, लोचना = प्रगट करना आलोचना है। (ii) प्रतिक्रमण-दोषों से पीछे हटना । दोषों का पुन: सेवन न करने का संकल्प करते हुए कृतदोषों को मिथ्या...करना अर्थात् “मिच्छामि दुक्कडं" देने मात्र से जो प्रायश्चित्त होता है, जिसकी गुरु के सामने आलोचना नहीं करनी पड़ती, वह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। जैसे अनुपयोग से कफ आदि थूक दिया, पर जीव-हिंसा नहीं हुई, ऐसे पाप की शुद्धि ‘मिच्छामि दुक्कडं' देने से हो जाती है इसके लिये गुरु के समक्ष आलोचना नहीं करनी पड़ती। (ii) मिश्र-जिस प्रायश्चित्त में आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों करना पड़ता हो, अर्थात् गुरु के सामने पापों को प्रकट करना और उसका ‘मिच्छामि दुक्कडं' देना, दोनों ही जिसमें करने पड़ते हों, वह मिश्र प्रायश्चित्त है। (iv) विवेक–जो प्रायश्चित्त त्याग करने से शुद्ध होता हो वह 'विवेक प्रायश्चित्त' है जैसे, आधाकर्मी आदि दोषों से युक्त आहार, पानी, उपधि आदि का त्याग (विवेक) करने पर ही शुद्धि होती (v) व्युत्सर्ग-काय अर्थात् शरीर-सम्बन्धी व्यापार का त्याग करना कायोत्सर्ग है । दुःस्वप्न आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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