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प्रवचन-सारोद्धार
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जनित पाप को दूर करने के लिये काय-व्यापार का त्याग करके अमुक लोगस्स का कायोत्सर्ग करना ही प्रायश्चित्त है।
(vi) तप–प्रायश्चित्त के रूप में छ: महीने तक नीवि आदि तप करना।
(vii) छेद-जैसे, शरीर का कोई अंग सड़ जाता है तो शेष शरीर की रक्षा के लिये उसे काटकर फेंक दिया जाता है, वैसे दोष के अनुपात में चारित्र-पर्याय का छेदन कर शेष पर्याय की रक्षा , करना छेद प्रायश्चित्त है।
__ (viii) मूल—जिसका सम्पूर्ण चारित्र दूषित हो चुका है, उसकी सम्पूर्ण पर्याय का छेदन कर पुन: दीक्षा देना।
(ix) अनवस्थाप्य अपराध करने के पश्चात् जब तक गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त पूरा न करले तब तक उसे महाव्रत न देना।
(x) पारांचित-लिंग, क्षेत्र, काल और तप की सीमा का उल्लंघन करने वाला सर्वोत्कृष्ट प्रायश्चित्त अथवा विशिष्ट प्रकार का अपराध करने वाले व्यक्ति को दिया जाने वाला प्रायश्चित्त अथवा जहाँ सभी प्रायश्चित्तों का अन्त हो जाता है वह पारांचित्त प्रायश्चित्त है। इस प्रायश्चित्त में अपराधी बारह वर्ष तक गच्छ और वेश का त्यागकर स्थान-स्थान पर भ्रमण करता है। जब उसके हाथों शासन प्रभावना का कोई महान् काम होता है तब उसे पुन: महाव्रत देकर गच्छ में लिया जाता है ॥ ७५० ।। कौन-सा प्रायश्चित्त कब?
१. गुरु की आज्ञा से अपने या आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, बाल, ग्लान, नूतनदीक्षित, तपस्वी एवं असमर्थ मुनि के निमित्त वस्त्र, पात्र, आहार, पानी, औषध आदि लाने हेतु, स्थंडिल, चैत्यवंदना के निमित्त, पीठफल
लक आदि देने हेत. बहश्रत. संविग्न आत्माओं को वन्दन करने या संशय के निराकरण हेत सौ • या सौ से अधिक हाथ दूर तक गमनागमन करने वाला मुनि श्रावकों की श्रद्धावृद्धि अथवा संयमी मुनियों
की उत्साह वद्धि के लिये यथाविधि गरु के संमुख आलोचना करता है। यह आलोचना गमनागमनादि क्रियाओं में सम्यग् उपयोग वाले, निरतिचारी, अप्रमत्त, छद्मस्थ मुनि को भी अवश्य करणीय है। सातिचारी मुनि को तो यथासम्भव पूर्वोक्त आलोचना कर प्रायश्चित्त लेना ही होता है। केवलज्ञानियों को तो - कृतकृत्य होने से आलोचना नहीं आती।
प्रश्न निरतिचारी मुनि आलोचना क्यों करता है? आलोचना के बिना भी वह तो शुद्ध ही है क्योंकि उसकी प्रवृत्ति सूत्रानुसार है।
उत्तर-गमनागमन करते जो कुछ कायिक प्रवृत्ति हुई या प्रमाद का सेवन हुआ उसकी शुद्धि के लिये निश्चित आलोचना करनी चाहिये। २. ईर्यासमिति सम्बन्धी - रास्ते में बातचीत करते हुए चलने से। भाषासमिति सम्बन्धी
- गृहस्थ की भाषा में या कर्कश स्वर में बोलने से। एषणा समिति सम्बन्धी -- आहार पानी आदि की गवेषणा उपयोगपूर्वक न करने से।
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