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प्रवचन-सारोद्धार
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समिइपमुहाण मिच्छाकरणे कीरइ पडिक्कमणं ॥७५१ ॥ सद्दाइएसु रागाइविरयणं साहिउं गुरूण पुरो। दिज्जइ मिच्छादुक्कडमेयं मीसं तु पच्छित्तं ॥७५२ ॥ कज्जो अणेसणिज्जे गहिए असणाइए परिच्चाओ। कीरइ काउस्सग्गो दिढे दुस्सविणपमुहंमि ॥७५३ ॥ निविगयाई दिज्जइ पुढवाइविघट्टणे तवविसेसो। तवदुद्दमस्स मुणिणो किज्जइ पज्जायवुच्छेओ ॥७५४ ॥ पाणाइवायपमुहे पुणव्वयारोवणं विहेयव्वं । ठाविज्जइ नवि एसुं कराइघायप्पदुट्ठमणो ॥७५५ ॥ पारंचियमावज्जइ सलिंगनिवभारियाइ सेवाहिं । अव्वत्तलिंगधरणे बारसवरिसाइं सूरीणं ॥७५६ ॥ नवरं दसमावत्तीए नवममज्झावयाण पच्छित्तं । छम्मासे जाव तयं जहन्नमुक्कोसओ वरिसं ॥७५७ ॥ दस ता अणुसज्जंती जा चउदसपब्वि पढमसंघयणी। तेण परं मूलंतं दुप्पसहो जाव चारित्ती ॥७५८ ॥
-गाथार्थदस प्रकार का प्रायश्चित्त-१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. कायोत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य, १०. पारांचित-ये प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं ।।७५० ।।
१. किसी कार्य के लिये सौ हाथ से अधिक गमनागमन करने पर गुरु के समक्ष आलोचना प्रायश्चित्त किया जाता है।
२. समिति आदि में दोष लगने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है ।।७५१ ।।
३. शब्द, रूप आदि इन्द्रिय विषयों में आसक्ति करने पर गुरु के समक्ष उसका 'मिच्छामिदुक्कडं' देना मिश्र प्रायश्चित्त है ।।७५२ ॥
४. गृहीत अनैषणीय आहार आदि का त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त है। ५. दुःस्वप्नादि देखा हो तो काउस्सग्ग प्रायश्चित्त होता है ।।७५३ ॥
६. पृथ्वीकाय आदि का संघट्टा होने पर जो 'नीवि' आदि का प्रायश्चित्त दिया जाता है वह तप प्रायश्चित्त है।
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