SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन - सारोद्धार पानी ग्रहण करते हैं। किन्तु एक बार में अभिग्रहपूर्वक एक से आहार और दूसरी से पानी ग्रहण करते हैं । ४०९ १. संसृष्ट- लिप्त हाथ और लिप्त पात्रवाली भिक्षा संसृष्ट कहलाती है यहाँ संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र, असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष देय और निरवशेष देय के मिलकर आठ भंग होते हैं । ( लिप्त दोष के प्रसंग में आठ भांगों का वर्णन है ) । गच्छवासी मुनियों को आठों भांगों से भिक्षा लेना कल्पता है कारण गच्छवासी मुनि यदि आठों भांगों से भिक्षा ग्रहण नहीं करेंगे तो भिक्षा दुर्लभ होगी । इससे सूत्रार्थ की हानि होने की सम्भावना है । परन्तु गच्छ से निर्गत मुनि मात्र आठवें (संसृष्ट हस्त-पात्र व सावशेष द्रव्य) भंग से ही भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं । २. असंसृष्ट- कोरे हाथ और कोरे पात्र से दी गई भिक्षा असंसृष्ट कहलाती है । किन्तु इसमें भिक्षा द्रव्य दो तरह का होता है- (i) सावशेष — देने के बाद पात्र में कुछ शेष रहना । (ii) निरवशेष - देने के बाद पीछे कुछ भी शेष न रहना । यद्यपि निरवशेष द्रव्य ग्रहण करने "में साधु के निमित्त बर्तन आदि धोने से मुनि को पश्चात्कर्म दोष लगता है; तथापि गच्छ में बाल-वृद्ध रोगी सभी तरह के मुनि होते हैं, निरवशेष भिक्षा द्रव्य का सर्वथा त्याग करने से तो उनके योग्य भिक्षा मिलना ही दुर्लभ होगी अतः गच्छवासी मुनियों को निरवशेष द्रव्य वाली भी भिक्षा लेना कल्पता है । ७४० ॥ ३. उद्धृता - जिस बर्तन में भोजन बनाया हो, उससे अलग बर्तन में निकालकर दी जाने वाली भिक्षा उद्धृता कहलाती है । ४. अल्पलेपिका—सर्वथा लेपरहित, नीरस पदार्थ जैसे वाल, चने आदि जिसे ग्रहण करने पर बर्तन आदि धोने की आवश्यकता नहीं रहती अथवा जिसमें पश्चात् कर्म (धोना) अल्प मात्रा में होता है वह भिक्षा अल्प लेपवाली है। चूड़ा आदि की भिक्षा ग्रहण करने में पश्चात्कर्म तथा त्याज्य तुषादि अल्प हो 11 688 11 ५. अवगृहीता- किसी के खाने के लिये परोसी गई थाली में से गृहीत भिक्षा अवगृहीता कहलाती है। यदि दाता ने हाथ और पात्र दोनों पानी से धोये हों तो पानी सूखने के बाद ही भिक्षा ग्रहण करना कल्पता है अन्यथा नहीं । ६. प्रगृहीता —- भोजन करने वालों को परोसने के लिये किसी ने भोज्य द्रव्य का बर्तन हाथ में लिया हो, इतने में भिक्षा के लिये साधु आ जाये और जीमने वाले स्वयं उसे न लेकर साधु को वहोराने का कहे अथवा जीमने वाले स्वयं ही अपने लिये ली गई खाद्य सामग्री साधु को वहोरावे ऐसी भिक्षा ‘प्रगृहीता' कहलाती है ।। ७४२ ।। ७. उज्झितधर्मा-जिसे भिखारी भी लेना न चाहे ऐसी भिक्षा अथवा गृहस्थ ने जिसे फेंकने लायक . समझी हो, ऐसी भिक्षा ग्रहण करना 'उज्झितधर्मा' है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy