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प्रवचन-सारोद्धार
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करने से ईर्यासमिति का व्यवस्थित पालन होता है इत्यादि । यहाँ आहार करना कारण प्रतीत होता है और क्षुधाशान्ति ईर्यासिमित का पालन आदि फल रूप लगते हैं। तथापि अर्थ-शक्ति से क्षुधाशान्ति आदि आहार के कारण प्रतीत होते हैं क्योंकि इनके अभाव में मुनि को आहार करना निषिद्ध है। इससे क्षुधोपशमादि आहार के कारण सिद्ध होते हैं ।। ७३६-७३७ ।। आहार त्यागने के छ: कारण
(i) आतंक-ज्वरादि की पीड़ा के समय आहार न करना। इससे ज्वर शीघ्र नष्ट हो जाता है। कहा है-वायु, क्रोध, शोक व कामजन्य ज्वर को छोड़कर शेष ज्वरों में लंघन (उपवास) हितकारी है।
(ii) उपसर्ग-देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि के द्वारा किये गये उपसर्ग के समय आहार न करना। उपसर्ग दो तरह का होता है—(अ) अनुकूल और (ब) प्रतिकूल।
(अ) दीक्षा लेने के पश्चात् माता-पिता आदि मोहवश पुन: घर ले जाने के लिये दीनता दिखावें, तो जब तक उनका मोह शान्त न हो, तब तक साधु उपवास करे, ताकि वे उसकी दृढ़ता देखकर अथवा भूख से साधु के मर जाने के डर से शान्त हो जाए। - (ब) राजा आदि क्रुद्ध होकर उपसर्ग करे तो मुनि आहार का त्याग करे। जिससे कदाचित् राजा दया करके मुनि को छोड़ दे।
(iii) ब्रह्मचर्यगुप्ति—ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये आहार का त्याग करना। कहा है— “विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः ।"
(iv) प्राणिदयार्थ-वर्षा आ रही हो, धूअर या सचित्तरज पड़ रही हो अथवा भूमि छोटे-छोटे मेंढक, तृण, घास, धान्य और जीवों से संसक्त हो तो ऐसी स्थिति में गौचरी जाने से जीवों की विराधना होती है, अत: मुनि उपवास करे।
(v) तपहेतु-तपश्चर्या के लिये आहार का त्याग करना ।
(vi) शरीरव्यवच्छेद–शिष्य बनाना, समुदाय की व्यवस्था करना आदि कार्य से कृत-कृत्य होने के पश्चात् संलेखना आदि के द्वारा अनशन की योग्यता संपादन करके आहार का त्याग करना।
सुयोग्य शिष्यादि बनाये बिना युवावस्था या प्रौढ़ावस्था में अनशन करनेवाला जिनाज्ञा का विराधक होता है। संलेखना के बिना अनशन करना आर्तध्यान का कारण है अत: संघादि का कार्य पूर्ण करके पश्चात् संलेखनापूर्वक ही अनशन करना चाहिये ॥ ७३८ ।।
|९६ द्वार :
पिण्डैषणा-पानैषणा
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संसठ्ठ-मसंसट्ठा उद्धड तह अप्पलेविया चेव। उग्गहिया पग्गहिया उज्झियधम्मा य सत्तमिया ॥७३९ ॥
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