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द्वार ९५
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ही राग रूप अग्नि से जला हुआ चारित्र रूप ईंधन अंगारे तुल्य होता है। भोजनगत विशिष्ट गन्ध, रस आदि में आसक्त बने आत्मा का प्रशंसापूर्वक आहार करना जैसे—अहो ! यह आहार कितना मधुर है...सुसंस्कृत है...स्निग्ध, पक्व व सुस्वादु है। इस प्रकार आसक्तिपूर्वक किया जाने वाला आहार सांगार कहलाता है।
साधु के आहार करने के एवं न करने के भगवान ने छः ही कारण बताये हैं। इनसे विपरीत आचरण करने वाला भगवान की आज्ञा का विराधक होता है। अत: राग आदि के निमित्त से आहार करने वाला, भोजन या दाता की प्रशंसा करने वाला आत्मा राग रूपी अग्नि से अपने चारित्र को जलाकर अंगारे जैसा बना देता है । ७३६ ॥
४. धूम दोष-देने वाले की या आहार की निन्दा करते हुए गौचरी करना। यह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है
(i) द्रव्य धूम-दोष-आधी जली हुई लकड़ी आदि से उत्पन्न होने वाला धुआँ ।
(ii) भाव धूम-दोष-द्वेष रूप अग्नि से जलते हुए चारित्र रूपी ईंधन से उत्पन्न निन्दा रूपी धुआँ । जैसे आधा जला हुआ ईंधन सधूम होता है, वैसे द्वेषाग्नि से जला हुआ चारित्र रूप ईंधन भी सधूम होता है। भोजन की विरूपता से द्वेषी बनकर “यह भोजन विरूप, दुर्गंधयुक्त, कच्चा, असंस्कृत, नमक हीन है,” इस प्रकार निन्दा करते हुए गौचरी करना धूम दोषयुक्त है।
५. कारण आहार करने और न करने के कारण।
मुनि के आहार करने के छ: कारण हैं और न करने के भी छ: कारण हैं। आहार करने के छ: कारण
(i) वेदना शमन— भूख की वेदना असह्य होती है, उसे शान्त किये बिना संयम का पालन अशक्य हो जाता है। अत: क्षुधा वेदना को शान्त करने के लिये मुनि आहार करता है।
(ii) ईर्या-समिति— भूख से पीड़ित नेत्र कमजोर हो जाने से ईर्या-समिति का पालन अच्छी तरह से नहीं कर सकता। अत: ईर्या-समिति की शुद्धि के लिये मुनि आहार करता है।
(iii) संयम मार्ग प्रेक्षा, उत्प्रेक्षा और प्रमार्जना संयम की वृद्धि के लिये मुनि आहार करता है।
(iv) प्राण-वृत्ति—प्राणों के टिकाने हेतु अथवा जीने के लिये मुनि आहार करता है, अविधि से प्राण त्यागना भी हिंसा है। कहा है-जिन वचन से भावित व मोहरहित आत्मा के लिये स्वपर की आत्मा में कोई भेद नहीं होता। अत: परपीड़ा की तरह स्वपीड़ा का भी त्याग करना चाहिये।
(v) वैयावच्च-गुरु आदि की वैयावच्च के लिये मुनि आहार करता है।
(vi) धर्मचिन्ता-धर्मध्यान, स्वाध्याय, वाचना आदि के लिये मुनि आहार करता है क्योंकि भूख से पीड़ित व्यक्ति आर्तध्यान के कारण धर्म-ध्यानादि नहीं कर सकता।
यद्यपि क्षुधा वेदना का उपशम, ईर्यासमिति का पालन आदि आहार के छ: कारण शब्द शक्ति से तो ऐसे लगते हैं जैसे ये आहार के फल हों। यथा-आहार करने से क्षुधा शान्त होती है...आहार
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