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प्रवचन-सारोद्धार
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को अधिक रस युक्त बनाने के लिये वसति के बाहर ही शक्कर आदि से मिश्रित करना, भक्त-पान विषयक बाह्य संयोजना है। आभ्यन्तर संयोजना तीन तरह की है
(अ) पात्र-विषयक-गौचरी करते समय दूध आदि को शक्कर आदि से मिश्रित करना।
(ब) कवल विषयक-कौर तोड़कर हाथ में लेने के बाद उसे रस युक्त बनाने के लिये शक्कर आदि से युक्त करना। ___ (स) मुखविषयक-पहले मंडक (एक प्रकार की रोटी) को मुख में डालकर फिर उसके स्वाद को और अधिक बढ़ाने के लिये गुड़ आदि मुँह में डालना।
अपवाद-गौचरी करने के बाद बचे हुए घी आदि को उठाने के लिये यदि उसमें शक्कर आदि मिश्रित की जाये तो ‘संयोजना' दोष नहीं लगता। पेट भरा हुआ होने से मंडक आदि के साथ घी नहीं खाया जा सकता। अगर उसे परठा जाये तो जीवों की विराधना होगी। अत: शर्करा आदि से मिश्रित करके उठाना आवश्यक है। . बीमार को स्वस्थ करने के लिये संयोजन करे तो दोष नहीं लगता।
दीक्षित राजपुत्रादि एवं नूतन मुनि के लिये संयोजना करने में दोष नहीं लगता। क्योंकि राजपुत्र सुकुमार होने से तथा नूतनदीक्षित चारित्र में दृढ़ न होने से कदाचित् संयम के प्रति अभाव वाले बनें। अत: इनके लिये 'रसवृद्धि' के हेतु भी यदि संयोजना करनी पड़े तो भी दोष नहीं लगता ॥ ७३४ ॥
२. प्रमाण-कुर्कुटी अर्थात् मुर्गी के अण्डे जितने बड़े परिमाण वाले ३२ कवल भोजन का प्रमाण है। कुर्कुटी के दो भेद हैं--(i) द्रव्यकुर्कुटी और (ii) भावकुर्कुटी।
(i) द्रव्यकुर्कुटी–साधु का शरीर कुर्कुटी है और उसका मुँह अण्डा है अत: जितना बड़ा कौर मुँह में सुखपूर्वक समा सके तथा उसे चबाने पर आँख, नाक, गाल, होठ या भ्रू जरा भी विकृत न बने, इतना बड़ा कवल द्रव्य-कुर्कुटी कहलाता है। द्रव्य कुर्कुटी की अपेक्षा से पुरुष, स्त्री व नपुंसक का आहार क्रमश: ३२, २८ और २४ कवल प्रमाण होता है।
(ii) भाव कुर्कुटी—जितना आहार करने से व्यक्ति भूखा न रहे, शरीर में स्फूर्ति रहे तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, उतना आहार भाव कुर्कुटी कहलाता है और उस आहार का ३२वाँ भाग अण्डक है। अत: भाव कुर्कुटी की अपेक्षा से पुरुष, स्त्री व नपुंसक का आहार क्रमश: ३२, २८ और २४ अण्डक (कवल) प्रमाण होता है ।
इससे अधिक आहार पाचन न होने से रोग, वमन व मृत्यु का कारण बनता है। ऐसा पिंडनियुक्ति में कहा है ।। ७३५ ॥
३. अंगार दोष-राग से दाता या भोजन की प्रशंसापूर्वक खाया जाने वाला शुद्ध आहार भी चारित्र को कोयला बना देता है। इसके दो भेद हैं
(i) द्रव्य अंगार-लकड़ी को जलाकर बनाये गये अंगारे (जलते कोयले)। (ii) भाव-अंगार-जैसे अग्नि से जला हुआ ईंधन निर्धूम होने के बाद अंगारा कहलाता है, वैसे
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