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मन की बात
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करने से ज्ञात होता है कि आप आगम शास्त्रों के तो पारंगत थे ही पर व्याकरण-साहित्य एवं न्याय-दर्शन के भी प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने नय-निक्षेप, कर्मवाद जैसे गंभीर विषयों को बड़ी गहराई से छआ है तथा उन्हें स्पष्ट करने हेतु नैयायिकों की तर्क-प्रधान शैली का भरपूर उपयोग किया है। विषय को स्पष्ट करने के लिये जहाँ उन्होंने विशेष ऊहापोह की आवश्यकता समझी, वहाँ 'ननु-नच' से प्रश्न उठाकर हाथोंहाथ तर्क-संगत एवं ठोस समाधान दिये हैं।
टीकाकार महर्षि मूलगत भावों की स्पष्टता देने में तो पूर्ण सफल हैं ही पर मूल की आगमों के साथ जहाँ विसंगति है उसे उजागर करने में जरा भी नहीं हिचकते। विसंगति की ओर स्पष्ट अंगुली निर्देश करते हुए उसकी शास्त्र-सम्मत व्याख्या करते हैं । २५४ द्वार की ‘परमाणू रहरेणू' (गाथा १३९१) इसका ज्वलन्त उदाहरण है। जहाँ मूलपाठ की एक से अधिक व्याख्या हो सकती है वहाँ सर्वप्रथम गुरुगम से प्राप्त अपने अनुभव के आधार पर बड़े आत्मविश्वास के साथ व्याख्या करते हैं पश्चात् 'अन्ये तु, तथा चम्परे...इत्यादि कहकर अन्य संमत व्याख्या भी देते हैं।
___ कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि टीका अपने आप में एक ग्रन्थ है। विषय को सरल, सुबोध रीति से प्रस्तुत करना, गंभीर विषय को रुचिकर बनाना टीकाकार की विशेषता है । इस दृष्टि से सिद्धसेनसूरि पूर्ण सफल हैं। वेदना/संवेदना
व्याकरण-साहित्य एवं न्याय-दर्शन के अध्ययन के पश्चात् प.पू.आगममर्मज्ञा, महान आत्मसाधिका, गुरुवर्याश्री की प्रबल भावना थी कि मैं आगम एवं तत्संबंधी ग्रन्थों का अध्ययन-स्वाध्याय करूँ। उनकी प्रेरणा, आशीर्वाद एवं आगममर्मज्ञता से उत्साहित हो मैंने इस क्षेत्र में अपने कदम धरे। आगम-स्वाध्याय के क्रम में जब मैंने इस ग्रन्थ को पढ़ा, इसके विषय-संग्रह एवं अर्थपूर्ण विशद व्याख्याओं ने मुझे अत्यधिक आकृष्ट किया। मैंने इसे कई बार पढ़ा। पढ़ा ही नहीं, इसका गहराई से अनशीलन-परिशीलन भी किया। इससे एक चिंतन उभरा कि-इस ग्रंथ में अनेक द्वार एक विषय से संबद्ध हैं. पर वे क्रमबद्ध नहीं हैं, अलग-अलग बिखरे हुए हैं। क्यों नहीं, उनका विषय के अनुरूप संकलन कर, अलग-अलग विभाग बना दिये जाये तथा विषय के अनुरूप उन विभागों का नामकरण कर दिया जाये? इस प्रकार एक विषय से संबद्ध संपूर्ण सामग्री एक स्थान पर उपलब्ध हो जाने से अध्ययन में सुगमता रहेगी।
बस, फिर क्या था ! तुरन्त पेन-पेपर उठाया और एक विषय से संबद्ध सभी द्वारों को क्रमबद्ध लिख डाला। इस तरह २७६ द्वार नौ भागों में विभक्त हो गये। प्रत्येक विभाग का विषय के अनुरूप नाम दे दिया। यथा-१. विधि-विभाग, २. आराधना विभाग, ३. सम्यक्त्व और श्रावक धर्म विभाग, ४. साधु-धर्म विभाग, ५. जीवस्वरूप विभाग, ६. कर्म-साहित्य विभाग, ७. तीर्थंकर विभाग, ८. सिद्ध-विभाग तथा ९. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव विभाग। पर मेरा मन विभागीकरण के औचित्य के प्रति असंदिग्ध नहीं था।
(किस विभाग में कौन-कौन से द्वारों का समावेश होता है, यह विभाग संबंधी द्वारों के अनुक्रम में द्रष्टव्य है।)
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