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________________ प्रवचन-सारोद्धार ४३ कर्ता ‘प्रवचनसारोद्धार' की कुल पाँच टीकायें उपलब्ध हैंटीका-नाम परिमाण १. तत्वज्ञानविकाशिनी श्री सिद्धसेनसूरि १८००० श्लोक प्रमाण २. विषमपद व्याख्या उदयप्रभसूरि ३२०३ श्लोक प्रमाण ३. विषमपद पर्याय अज्ञातकर्तृक ३३०३ श्लोक प्रमाण ४. विषमपद वृत्ति अज्ञातकर्तृक ५. विषमपद बालावबोध पद्ममंदिरगणि .. इन सभी टीकाओं में 'तत्त्वविकाशिनी' टीका सर्वाधिक प्राचीन, विशद एवं सुबोध है। इसी टीका का ‘हिन्दी अनुवाद' यहाँ प्रस्तुत है। टीकाकार प्रस्तुत टीका के रचयिता आचार्यदेव सिद्धसेनसूरि हैं जो कि चन्द्रगच्छीय है। टीका के अन्त में पूज्यश्री ने अपनी गुरु परंपरा का इस प्रकार वर्णन दिया है-- चन्द्रगच्छीय आचार्यदेव श्री अभयदेवसूरि....धनेश्वरसूरि..अजितसिंहसूरि.श्री देवप्रभसूरि..श्री सिद्धसेनसूरि । ग्रन्थकार की तरह टीकाकार का जीवनवृत्त भी अनुपलब्ध ही है। केवल समय और उनके द्वारा रचित ग्रन्थसंख्या अवश्य उपलब्ध होती है। प्रस्तुत टीका में स्वरचित अन्य तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। जैसे १. 'तथा चावोचाम स्तुतिः.... २. 'तथा चाचक्ष्महि श्री पद्मप्रभचरित्रे... ३. 'अस्मदुपरचिता सामाचारी निरीक्षणीया'। किंतु आज इनमें से एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। टीका का अवगाहन करने से विदित होता है कि टीकाकार महर्षि शास्त्रों के समर्थ ज्ञाता है। तभी तो टीका में स्थान-स्थान पर ५०० से अधिक भिन्न-भिन्न शास्त्रों के उद्धरण मिलते हैं। ९० से अधिक उद्धरण तो शास्त्रों के नामोल्लेख पूर्वक दिये हैं। ___पदार्थ को समझाने की उनकी शैली अत्यधिक स्पष्ट है। जिस पद के अर्थ को समझाना है सर्वप्रथम उसकी व्याकरण सम्मत व्युत्पत्ति देकर उस पद का पर्यायवाची देते हुए फिर सरल-सुबोध भाषा में उसका अर्थ देते हैं। इतना ही नहीं 'इदमत्र हृदयम्..अयं भाव:' ऐसा कहकर अपने शब्दों में पदार्थ का सारांश देकर उसे और अधिक सुस्पष्ट करते हैं। जैसे 'शीलांग' का अर्थ समझाना है तो सर्वप्रथम शील + अंग इस प्रकार शब्दों को अलग करते हैं, पश्चात् शील = संयम:, अंग = अंश इस प्रकार शब्दार्थ बताते हैं, तदनन्तर ‘चारित्र के कारणभूत आचरण' शीलांग कहलाते हैं, इस प्रकार शब्द का सारांश देते हैं। फिर उसके भेद-प्रभेद देकर शब्द की विशद व्याख्या करते हैं। 'भावना' को समझाते हुए सर्वप्रथम 'भाव्यते इति भावना' शब्द की व्युत्पत्ति दी। पश्चात् ‘भावना-परिणामविशेषा इति' कहकर, भावना शब्द का सारांश देते हैं। इस प्रकार टीका में मूलगत भावों को यथाशक्य खोलने का टीकाकार का सर्वत्र प्रयास रहा है। आपकी भाषा साहित्यिक है, प्रवाहबद्ध है। शैली सुगम किंतु विवेचनात्मक है । टीका का परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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