SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन की बात ४२ सिवाय इतनी पैनी संग्राहक प्रतिभा विकसित हो ही नहीं सकती। वस्तुत: ग्रन्थकार महर्षि की ज्ञानसाधना परमवन्दनीय है । स्वान्त:सुखाय ज्ञानसाधना को समर्पित साधक ही तो श्रुतसमृद्धि के मूलस्रोत हैं। ___आचार्यश्री काव्यप्रतिभा के धनी हैं। आर्या जैसे लघुकाय छन्द में विविध विषयों को सरलता से पिरो देना उनकी काव्यकुशलता का परिचायक है । प्रकरण ग्रन्थों में प्रवचनसारोद्धार अतिप्राचीन, विशालकाय एवं प्रमुख ग्रंथ हैं। अनेक ग्रन्थों में इसकी गाथायें प्रमाण रूप में उपलब्ध होती हैं। उपयोगिता की दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ का बड़ा महत्त्व है। इसके अध्ययन से सामान्य व्यक्ति भी आगमिक पदार्थों का सुगमता से बोध कर सकता है। जिनरत्नकोश में प्रवचनसारोद्धार का परिचय देते हुए वेलणकर ने लिखा है fet—'It is a detailed exposition of Jain Philosophy in 8488 Gathas.' टीका एवं टीकाकार जैसे चाबी से ताला खुलता है, वैसे टीका ग्रन्थकार के भावों को खोलती है। दूसरों के भावों की यथार्थता को समझकर उन्हें स्पष्ट करना आसान बात नहीं है पर टीकाकार अपने अगाध ज्ञान और बुद्धिकौशल से कठिन को भी आसान बना देता है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर 'तत्त्वज्ञानविकाशिनी' नामक टीका है जो वास्तव में तत्त्वों पर सांगोपांग प्रकाश डालने के कारण अपने नाम की सार्थकता सिद्ध करती है। ___ इस टीका के रचयिता विद्वद्वरेण्य श्री सिद्धसेनसूरिजी है। मूलग्रन्थ की रचना के कुछ वर्षों के पश्चात् ही उन्होंने 'तत्त्वज्ञानविकाशिनी' टीका की रचना की थी। जैसा कि टीकाकार ने स्वयं ने अपनी टीका की प्रशस्ति में इसके रचनाकाल का स्पष्ट उल्लेख किया है। करिसागररविसंख्ये, विक्रमनृपतिवत्सरे चैत्रे। पुष्यार्के दिने शुक्लाष्टम्यां वृत्ति समाप्ताऽसौ। अर्थात प्रस्तुत टीका विक्रम संवत् १२४२, १२४८ अथवा १२७८ में रचित है। 'करि' के स्थान पर यदि 'कर' पाठान्तर है तो कर = २ का प्रतीक होने से टीका का रचनाकाल १२४२ ठहरता है, 'करि' = ८ का प्रतीक होने से रचनाकाल १२४८ ठहरता है तथा 'सागर' शब्द को ७ का प्रतीक मानें तो इसका रचनाकाल १२७८ ठहरता है। सामान्यतया यह माना जाता है कि टीका का समापन विक्रम संवत् १२४८ की चैत्र सुदी ८ रविपुष्य के दिन हुआ था। टीका की भाषा सरल, सुबोध, साहित्यिक संस्कृत है। शैली सुगम किंतु विवेचनात्मक है । पदार्थ का विश्लेषण इतना विशद एवं सरल है कि सामान्य पाठक भी मूलग्रन्थ के हार्द तक बड़ी सुगमता से पहुँच सकता है। टीका १८००० श्लोक प्रमाण है। वास्तव में यह तत्त्वों पर प्रकाश डालने वाली विशद व्याख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy