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प्रवचन-सारोद्धार
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आखिर सुयोग मिला। मैंने द्वारों के वर्गीकरण की बात परम श्रद्धेय, आगममर्मज्ञ, प्रसिद्ध लेखक व वक्ता, अनुप्रेक्षा स्वाध्याय के प्रेरक आचार्यदेव श्री विजयभद्रगुप्तसूरीश्वरजी म.सा. के सम्मुख रखी। उन्हें द्वारों का वर्गीकरण दिखाया। वर्गीकरण की पद्धति देखकर वे प्रसन्न ही नहीं अत्यधिक प्रभावित भी हुए। कुछ सोचकर वे आत्मीयता से आप्लावित मुस्कुराहट के साथ बोले-'तुम्हें इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करना है।' मेरा मन इतना गुरु गंभीर उत्तरदायित्व लेने को प्रस्तुत नहीं था, पर कृपामूर्ति, भाववत्सल आचार्यश्री के आदेश को टालना भी तो मेरे लिये संभव नहीं था। मैंने मौन स्वीकृति दे दी। इस ग्रन्थ के अनुवादन के प्रेरणास्रोत के रूप में वे सदा मेरे स्मृति मन्दिर में विराजमान रहेंगे। श्रद्धा सह अगणित वन्दन है पूज्य चरणों में।
पर यह कार्य मेरी आराध्या, देवी आगममर्मज्ञा, भाववत्सला गुरुवर्याश्री के आशीर्वाद के बिना असंभव था। उनके अन्तर्हदय के आशीर्वाद से ही मैं यह गुरुतर कार्य पूर्ण करने का साहस जुटा पाई थी। अन्यथा आगमिक ग्रन्थ का सरल, मधुर एवं प्रांजल भाषा में मूलस्पर्शी अनुवाद करना आसान नहीं है। यदि बुद्धि है, प्रतिभा है, अभीष्ट विषय का चुनाव है और आवश्यक साधन-सामग्री उपलब्ध है तो स्वतन्त्र लेखन अपेक्षाकृत आसान है। गुरुमाता के आशीर्वाद एवं सहयोग से कुछ समय तक अनुवाद का काम सरलता से चलता रहा। किंतु इस संसार में किसका समय एक-सा रहा है? किसका सपना साकार हुआ है? मेरा तो योग ही ऐसा है कि बिना श्रम, संघर्ष एवं विलंब के कभी कोई काम पूरा नहीं हुआ तो यह काम शीघ्र कैसे पूरा हो जाता। कुछ ही द्वारों का अनुवाद पूर्ण हुआ था कि गुरुवर्याश्री का स्वास्थ्य अधिक बिगड़ गया। उपचारों के बावजूद दिन-प्रतिदिन उनकी रुग्णावस्था बढ़ती गई। जो नहीं सोचा था वह घटित हो गया। वे देहातीत हो गईं। प्रस्तुत ग्रन्थ को उनके करकमलों में समर्पित करने का मेरा सपना अधूरा रह गया और अनुवाद का कार्य भी वहीं छूट गया। लेखन के प्रति मन में वितृष्णा सी छा गई। प्रियजनों, हितचिन्तकों एवं सहयोगियों की ओर से अनुवाद-पूर्ण करने का लगातार अनुरोध, आग्रह एवं निवेदन होता रहा किंतु हाथ कलम थामने को कतई तैयार नहीं था। ___पर परमश्रद्धेय, प्रतिभापुंज, परमतेजोमय व्यक्तित्व के धनी, जन-मन-मोहक गणिवर्य श्री मणिप्रभसागर जी म.सा. के स्नेहिल आदेश ने मेरी विश्रान्त लेखन-यात्रा को पुन: गति प्रदान की। अनुवाद की पूर्णता, उन्हीं की प्रेरणा का पावन-प्रसाद है। उनके सहयोग की चर्चा कर मैं उनकी आत्मीयता का मूल्य कम नहीं करना चाहती। वे सहज आत्मीयता की प्रतिमूर्ति के रूप में मेरे मानस-कक्ष में सदा समादृत रहेंगे। वे मेरी चेतना को सदा जगाते रहें, इन्हीं कामनाओं के साथ श्रद्धेय-चरणों में प्रणामांजलि सह समर्चना प्रस्तुत है। ___अनुवाद के व्यवधान की कहानी का अन्त यहीं नहीं होता। पू. गुरुवर्या के दिवंगत होने के पश्चात् संघ-समुदाय संबंधी उत्तरदायित्व, दीक्षा, प्रतिष्ठा, उपधान आदि के शृंखलाबद्ध कार्यक्रम, प्रवचन, शिबिर, चातुर्मासिक-आराधनाओं की व्यवस्था, सुदूर प्रदेशों की विहारयात्रा, स्वास्थ्य की प्रतिकूलता आदि कारणों से कई बार लेखन में लंबे समय तक का अन्तराल उपस्थित होता रहा। फिर भी जब-जब समय मिलता कुछ न कुछ लिखने का प्रयास करती रही। मैं जितना शीघ्र इसे पूर्ण करना चाहती थी, प्रकृति
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