SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०२ द्वार ९३ क्षपकश्रेणि में अनेक समय आश्रयी प्रवेश करने वालों की संख्या पन्द्रह कर्मभूमि की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त काल परिमाण में उत्कृष्टः २०० से ९०० है। क्योंकि क्षपक श्रेणि निरन्तर नहीं होती। प्रश्न-उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि का कालमान अन्तर्मुहूर्त का है और एक अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात समय होते हैं। असंख्यात समय में यदि एक जीव भी प्रतिसमय प्रवेश करे तो कुल मिलाकर अन्तर्मुहूर्त काल में असंख्यात उपशामक और असंख्यात ही क्षपक हो जाते हैं। जबकि उपशम श्रेणि में प्रतिसमय उत्कृष्टत: प्रवेश करने वाले ५४ और क्षपक श्रेणि में १०८ जीव होते हैं। अत: उपशामक और क्षपक की पूर्वोक्त संख्या कैसे घटेगी? उत्तर—श्रेणी काल में प्रतिसमय जीवों का प्रवेश हो तब तो आपका प्रश्न यथार्थ है किन्तु प्रति समय जीवों का प्रवेश नहीं होता क्योंकि ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में ऐसा ही देखा है तथा गर्भज मनुष्यों की संख्या संख्यात ही है, असंख्यात नहीं। उनमें भी श्रेणी चढ़ने वाले संयमी ही होते हैं अन्य नहीं। अत: उपशामक और क्षपक की पूर्वोक्त संख्या यथार्थ है ॥ ७२६-७२७ ।। ५. स्नातक-शुक्लध्यानरूपी जल से धो लिया है समस्त घातिकर्मरूपी मैल को जिसने (स्नान किये हुए की तरह), ऐसा आत्मा अर्थात् केवलज्ञानी स्नातक कहलाते हैं। इनके दो भेद हैं (i) सयोगी-मन-वचन-काया की प्रवृत्ति वाले। (i) अयोगी-मन-वचन और काया की प्रवृत्ति से रहित। विशेष-भगवती में पुलाक, बकुश आदि निर्ग्रन्थों का ३६ द्वारों से चिन्तन किया गया है। इनमें अत्यन्त उपयोगी तथा शेष द्वारों का उपलक्षण रूप होने से यहाँ 'प्रतिसेवना' द्वार की व्याख्या की जाती है। प्रतिसेवना = प्राणातिपात विरमण आदि मूलगुणों की तथा पिण्डविशुद्धि आदि उत्तरगुणों की सम्यम् आराधना सेवा है। उनकी विराधना प्रतिसेवा है। मूल व उत्तरगुणों में से किसी एक की विराधना पुलाक प्रतिसेवना व कुशील प्रतिसेवना है। • तत्त्वार्थभाष्य के मतानुसार पाँच मूलगुण तथा रात्रिभोजन विरमणव्रत में से किसी एक की दूसरों के आग्रह से या बलात्कार से विराधना करने वाला प्रतिसेवना पुलाक है। किसी का मत है कि ब्रह्मचर्य व्रत की विराधना करने वाला प्रतिसेवना पुलाक कहलाता है ।।७२८ ।। • मूलगुण को सुरक्षित रखने वाला व उत्तरगुण की अल्प-विराधना करने वाला प्रतिसेवना कुशील है। मात्र उत्तरगुणों का विराधक ‘बकुश' होता है। शेष निर्ग्रन्थ मूल व उत्तरगुण के अविराधक होते हैं। प्रश्न-प्रतिसेवना पुलाक और प्रतिसेवना कुशील विराधक होने से निर्ग्रन्थ कैसे कहे जाते हैं ? उत्तर-संयम-स्थान असंख्यात है और चारित्र की परिणति संयम-स्थान रूप होने से प्रतिसेवना पुलाक और प्रतिसेवना कुशील भी निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के पाँच भेदों में चारित्र के अनन्त-अनन्त पर्याय होते हैं। कहा है-'हे भगवन्, पुलाक संयमी के कितने चारित्र पर्याय होते हैं? हे गौतम ! अनन्त चारित्र पर्याय होते हैं ऐसा स्नातक पर्यन्त समझना' ॥ ७२९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy