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प्रवचन - सारोद्धार
४. निर्ग्रन्थ-मोह रूपी ग्रन्थि से रहित । इसके दो भेद हैं
(i) उपशान्तमोह (ii) क्षीणमोह |
(१) उपशान्तमोह - जिस आत्मा का मोहकर्म ऐसा उपशान्त हो गया हो कि जिसका संक्रमण, उद्वर्त्तन कुछ भी न हो सके। इसके पाँच भेद हैं
प्रथमसमय निर्ग्रन्थ-उपशान्त मोह के प्रथम समय में स्थित आत्मा ।
अप्रथमसमय निर्ग्रन्थ—उपशान्त मोह के प्रथम समय को छोड़कर शेष काल में
(i)
(ii)
(iii)
(iv)
(i)
(v)
यथासूक्ष्म निर्ग्रन्थ-उपशान्त मोह के सम्पूर्ण समय में वर्तमान आत्मा ।
(२) क्षीणमोह — सूक्ष्मसंपराय अवस्था में संज्वलन लोभ का सर्वथा क्षय हो जाने से जिसका मोह सर्वथा क्षीण हो चुका हो। इसके पाँच भेद हैं ।
प्रथम समय निर्ग्रन्थ - अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण निर्ग्रन्थ काल के प्रथम समय में निर्ग्रथता को प्राप्त करने वाला आत्मा ।
अप्रथम समय निर्ग्रन्थ- क्षीणमोह के प्रथम समय को छोड़कर शेष समय में वर्तमान आत्मा । प्रथम- अप्रथम समय निर्ग्रन्थ की प्ररूपणा पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा से है 1
चरमसमय निर्ग्रन्थ- क्षीणमोह के चरम समय में वर्तमान आत्मा ।
(ii)
(iii)
(iv)
४०१
स्थित आत्मा ।
चरम समय निर्ग्रन्थ-उपशान्त मोह के अन्तिम समय में वर्तमान आत्मा ।
अचरम समय निर्ग्रन्थ—–उपशान्त मोह के अन्तिम समय को छोड़कर शेष समय में
वर्तमान आत्मा ।
अचरम समय निर्ग्रन्थ- क्षीणमोह के चरम समय को छोड़कर शेष समय में वर्तमान आत्मा । चरम-अचरम समय निर्ग्रन्थ की प्ररूपणा पश्चानुपूर्वी की अपेक्षा से है I
(v) यथासूक्ष्म - क्षीणमोह के सम्पूर्ण काल में वर्तमान आत्मा । ये भेद विवक्षाकृत हैं । उपशमश्रेणि वाला आत्मा कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता है, क्योंकि उपशम श्रेणि का अन्तर काल उत्कृष्टतः दो से नौ वर्ष का है। एक समय में एक साथ उपशम श्रेणि प्रारम्भ करने वाले जीव जघन्यतः १-२-३, उत्कृष्टत: ५४ हो सकते हैं ।
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उपशमश्रेणि में अनेक समय आश्रयी प्रवेश करने वालों की संख्या पन्द्रह कर्मभूमि की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त काल में उत्कृष्टतः संख्याता है, क्योंकि उपशम श्रेणि निरन्तर नहीं होती ।
क्षपकश्रेणि में एक समय में प्रवेश करने वाले आत्मा जघन्यतः १-२-३, क्षीणमोही कदाचित् नहीं भी होता है, क्योंकि क्षपक श्रेणि का अन्तर उत्कृष्ट से छः महीने का है । उत्कृष्टतः १०८ एक समय में क्षपक होते हैं।
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