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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३८७ (i) आत्मौपघातिक–बगीचा आदि में मलोत्सर्ग करना, इससे मालिक क्रुद्ध होकर साधु की ताड़ना-तर्जना करे। (ii) प्रवचनौपघातिक अत्यन्त गन्दे स्थानों पर मलोत्सर्ग करने, से लोग निन्दा करें कि “ये साधु लोग कैसे हैं? ऐसे गन्दे स्थान पर मलोत्सर्ग करते हैं ?" (iii) संयमौपघातिक कोयले आदि बनाने के स्थान पर मलोत्सर्ग करना। इससे बनने वाले उस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर कोयले आदि बनायेंगे। इससे जो जीव हिंसा होगी उसके दोष का भागी साधु बनेगा। अत: इन तीनों स्थंडिलों में मलोत्सर्ग नहीं करना चाहिये अथवा साधु की टट्टी को अन्यत्र स्थंडिल में डालेंगे। ३. सम-समतल भूमि में मलोत्सर्ग करना चाहिये। विषम स्थान में जाने से गिरने का भय रहता है। इससे आत्म-विराधना तथा भूमिगत जीवों की विराधना होने से जीव हिंसा का दोष लगता . ४. ठोस-तृणादि से रहित ठोस भूमि पर मलादि करना चाहिये । खोखली भूमि पर स्थंडिल आदि जाने से छिद्र में रहे हुए सांप, बिच्छु आदि के काटने का डर रहता है। इससे आत्मविराधना तथा छेद आदि में पानी, पेशाब आदि जाने से जीव-विराधना होती है। . ५. अचिरकालकृत—जो भूमि जिस ऋतु में आग आदि जलाकर अचित्त बनायी गयी हो, वह उसी ऋतु तक अचित्त रहती है, बाद में सचित्त या सचित्त-मिश्र बन जाती है। जैसे हेमन्त ऋतु में अचित्त बनाई गई भूमि उसी ऋतु तक अचित्त रहती है दूसरी ऋतु आते ही सचित्त या सचित्त-मिश्र हो जाने से • स्थंडिल रूप नहीं रहती। अत: ऐसी भूमि में उस ऋतु में ही मलोत्सर्ग करना चाहिये। जिस भूमि पर वर्षाकाल में पूरा का पूरा एक गाँव बसा हो, वह भूमि बारह वर्ष पर्यन्त स्थंडिल रहती है। इसके बाद अस्थंडिल हो जाती है। ६. विस्तीर्ण विस्तार वाला। जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से तीन प्रकार का है(i) जघन्य—एक हाथ लम्बी चौड़ी भूमि। (ii) मध्यम-जघन्य और उत्कृष्ट के बीच की लम्बाई चौड़ाई वाली। (iii) उत्कृष्ट–बारह योजन लम्बी चौड़ी, जहाँ चक्रवर्ती ने अपनी छावनी डाली हो । एक हाथ से कम विस्तार वाले स्थंडिल में मलोत्सर्ग नहीं करना चाहिये अन्यथा आत्मविराधना या संयम-विराधना होती है। ७. दूरावगाढ़-गहरा। यह जघन्य, उत्कृष्ट भेद से दो प्रकार का है(i) जघन्य-जो भूमि अग्नि आदि के ताप से चार अंगुल नीचे तक अचित्त बन गई हो। (ii) उत्कृष्ट—जो भूमि चार अंगुल से अधिक नीचे तक अचित्त बन गई हो। ऐसी भूमि पर मलोत्सर्ग किया जाता है। वृद्धों का मत है कि चार अंगुल तक अचित्त भूमि में मलोत्सर्ग किया जा सकता है और इससे अधिक गहराई तक अचित्त भूमि में मात्रा (मूत्र) किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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