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प्रवचन-सारोद्धार
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जो विशेषता है उसे बताते हैं। संज्वलन लोभ के किट्टीकृत संख्याता खंडों की क्रमश: उपशमना होती है। तत्पश्चात् अंतिम खंड के असंख्याता खंड करके उनकी क्रमश: उपशमना की जाती है ।।७०३-७०५ ।।
लोभ के अन्तिम खण्ड के असंख्याता खण्डों में से प्रतिसमय एक-एक खण्ड की उपशमना होती है। श्रेणीकर्ता आत्मा दर्शनसप्तक की उपशमना करते समय अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती होता है। नपुंसकवेद की उपशमना से लेकर बादर लोभ के संख्याता खंडों की उपशमना पर्यन्त अनिवृत्तिबादर रूप नौंवे गुणस्थान में होता है। तत्पश्चात् किट्टीकृत अन्तिम खंड के असंख्याता खंडों की उपशमना करते समय श्रेणीकर्ता आत्मा सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक में होता है। इस प्रकार मोहनीय का सर्वथा उपशम हो जाने से जीव को उपशान्तमोह गुणस्थान उपलब्ध होता है। वीतरागभाव से पतित न होने वाले आत्मा के लिये यह गुणस्थान सर्वार्थसिद्ध विमान की प्राप्ति का कारण बनता है ।।७०६-७०८॥
-विवेचन• अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती आत्मा उपशम श्रेणि का प्रारम्भकर्ता है। इसमें मोहनीय की उत्तर प्रकृतियों का क्रमश: उपशम होता है अत: इसे उपशम श्रेणी कहते हैं। श्रेणी पूर्ण होने के पश्चात् आत्मा अप्रमत्त, प्रमत्त, देशविरत या विरत किसी भी गुणस्थानक में जा सकता है।
__ अन्यमते-अनन्तानुबंधी कषाय की उपशमना अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती आत्मा ही कर सकता है, ऐसा नियम नहीं है प्रत्युत अनन्तानुबंधी कषाय की उपशमना अविरत, देशविरत, प्रमत्त या अप्रमत्त सभी कर सकते हैं। दर्शनत्रिक की उपशमना संयमी आत्मा ही कर सकता है, ऐसा नियम है।
सर्वप्रथम अनन्तानुबंधी कषाय की उपशमना होती है उसकी विधि निम्न प्रकार है-४, ५, ६ या ७वें गुणस्थानवी, तीन योग में से किसी एक योग वाला तेज, पड़ा और शुक्ललेश्या में से किसी एक लेश्या वाला, साकारोपयोगी, अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति वाला आत्मा उपशम श्रेणी का कर्ता है। श्रेणी के प्रारम्भ से अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही उसके अध्यवसाय विशुद्ध हो जाते हैं जिससे वह परावर्तमान शुभ प्रकृति को बाँधते हुए प्रतिसमय शुभ प्रकृति के अनुभाग की अनंतगुण वृद्धि एवं अशुभ प्रकृति के अनुभाग की अनंतगुण हानि करता है। यहाँ पूर्वापेक्षा स्थितिबंध भी हलका होता है। तत्पश्चात् क्रमश: अन्तर्मुहूर्त समय प्रमाण यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करता है। अन्त में आत्मा उपशान्त अद्धा में प्रविष्ट होता है। यथाप्रवृतिकरण आदि का स्वरूप कर्मप्रकृति ग्रन्थ से ज्ञातव्य है।
यथाप्रवृत्तिकरण में वर्तमान आत्मा प्रतिसमय अध्यवसायों की अनंत गुण विशुद्धि के द्वारा शुभ प्रकृतियों के रस में अनंत गुण वृद्धि और अशुभ प्रकृतियों के रस में अनन्त गुण हानि करता है। पूर्व स्थितिबंध की अपेक्षा उत्तरोत्तर पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून स्थितिबंध करता है। तथाविध विशुद्धि के अभाव से स्थितिघात, रसधात, गुणश्रेणी या गुणसंक्रम यहाँ नहीं होता।
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