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________________ ३७८ T 1 यथाप्रवृत्तिकरण के बाद आत्मा अपूर्वकरण करता है। इसमें स्थितिघात, रसघात, आदि पाँचों ही अपूर्व कार्य होते हैं । (स्थितिघात आदि का विवेचन पूर्ववत् समझना) । इस प्रकार अपूर्वकरण-काल समाप्त होने के पश्चात् आत्मा अनिवृत्तिकरण - काल में प्रवेश करता है । यहाँ भी पूर्वोक्त पाँचों कार्य होते हैं । अनिवृत्तिकरण के असंख्यात भाग बीतने पर व एक भाग शेष रहने पर आत्मा अन्तरकरण करता है । अन्तरकरण अनन्तानुबंधी कषाय के एक आवलिका प्रमाण निषेकों को छोड़कर शेष ऊपरवर्ती निषेकों का होता है। यहाँ भी मिथ्यात्व की तरह कर्मों की स्थिति दो भागों में बँट जाती है। एक अन्तरकरण के नीचे की स्थिति, जो मात्र एक आवलिका प्रमाण होती है और दूसरी अन्तरकरण के ऊपर की स्थिति, जो लम्बी होती है । तदनन्तर आत्मा अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकरण के दलिकों को वहाँ से उठा-उठाकर बध्यमान प्रकृतियों में डालता है तथा एक आवलिका प्रमाण नीचे की स्थिति के दलिकों को भोग्यमान प्रकृतियों में डालकर क्षीण करता है । अन्तरकरण के द्वितीय समय में ऊपर की स्थिति में वर्तमान दलिकों का उपशमन प्रारम्भ होता है। प्रथम समय में अल्प दलिकों की तथा द्वितीय, तृतीय आदि समय में उत्तरोत्तर असंख्यात गुण अधिक दलिकों की उपशमना होती है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के अन्त तक सम्पूर्ण द्वार ९० अनन्तानुबंधी कषाय का उपशम हो जाता है 1 उपशम का अर्थ है सर्वथा शान्त हो जाना। जैसे पानी छींटकर घन द्वारा पीटी गई धूल जम जाती है वैसे विशुद्धि रूप जल के छींटों द्वारा सिंचित एवं अनिवृत्तिकरण रूप मुद्गर से पीटे गये कर्म दलिक ऐसे शान्त हो जाते हैं कि संक्रमण, उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचनाकरण भी उन्हें परिवर्तित नहीं कर सकते। इस प्रकार अनन्तानुबंधी कषाय की उपशमना होती है 1 अन्यमते- कुछ आचार्यों का मत है कि अनन्तानुबंधी कषाय की उपशमना नहीं होती परन्तु विसंयोजना या क्षपना होती है (देखें पूर्व द्वार) । Jain Education International 1 अनन्तानुबंधी कषाय की उपशमना करने के बाद दर्शनत्रिक की उपशमना होती है । दर्शनत्रिक की उपशमना क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, संयमी आत्मा करता है। इसका काल प्रमाण अन्तर्मुहूर्त का है। दर्शनत्रिक की उपशमना करने वाले आत्मा को भी तीनों करण करने पड़ते हैं । वह भी अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीतने के बाद अन्तरकरण करता है। इससे सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और मिश्र इन तीनों प्रकृतियों के दलिक दो भागों में विभक्त हो जाते हैं। एक अन्तरकरण के नीचे का भाग जो प्रथम-स्थिति या नीचे की स्थिति कहलाती है और दूसरा ऊपर का भाग, जो द्वितीय स्थिति या ऊपर की स्थिति कहलाती है। इनमें सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण एवं मिथ्यात्व व मिश्र की स्थिति क आवलिका प्रमाण होती है, कारण इतनी स्थिति शेष रहने पर ही विवक्षित प्रकृतियों का अन्तरकरण होता है । तत्पश्चात् अन्तरकरण काल का दलिक वहाँ से उठा-उठाकर सम्यक्त्व की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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