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कोहं माणं मायं लोभमणंताणुबंधमुवसमइ । मिच्छत्तमिस्ससम्मत्तरूवपुंजत्तयं तयणु ॥७०१ ॥ इत्थिनपुंगवे तत्तो हासाइछक्कमेयं तु । हासो रई य अरई य सोगो य भयं दुगुंछा य ॥७०२ ॥ तो पुंवेयं तत्तो अप्पच्चक्खाणपच्चखाणा य। आवरणकोहजुयलं पसमइ संजलणकोहंपि ॥७०३ ॥ एक्मेण तिन्निवि माणे मायाउ लोह तियगंपि । नवरं संजलणाभिहलोहतिभागे इय विसेसो ॥७०४ ॥ संखेयाई किट्टीकयाई खंडाई पसमइ कमेणं । पुणरवि चरिमं खंड असंखखंडाई काऊण ॥७०५ ॥ अणुसमयं एक्केक्कं उवसामइ इह हि सत्तगोवसमे । होइ अव्व तत्तो अनियट्टी होइ नपुमाइ ॥ ७०६ ॥ पसमंतो जा संखेयलोहखंडाओ चरिमखंडस्स । संखाईए खंडे पसमंतो सुहुमराओ सो ॥७०७ ॥ इय मोहोवसमम्मि कयम्मि उपसंतमोहगुणठाणं । सव्वट्टसिद्धिहेउं संजायइ वीयरायाणं ॥ ७०८ ॥ _-गाथार्थ
द्वार १०
उपशमश्रेणि— सर्वप्रथम अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशम होता है । पश्चात् मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वमोह, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि षट्क एवं पुरुषवेद का क्रमशः उपशम होता है । तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण क्रोध युगल की युगपत् उपशमना होती है उसके बाद एक संज्वलन क्रोध की उपशमना होती है। इस प्रकार एकान्तरित दो-दो की उपशमना होती है । ७०० ॥
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सर्वप्रथम अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ की उपशमना होती है । पश्चात् मिथ्यात्व, · मिश्र एवं सम्यक्त्वरूप तीन पुंजों की उपशमना होती है । तत्पश्चात् स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और दुगुंछारूप हास्यादि षट्क की उपशमना होती है ।। ७०१-७०२ ।।
तब पुरुषवेद अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण क्रोध युगल और उसके पश्चात् संज्वलन क्रोध का उपशम होता है । इस क्रम से अप्रत्याख्यानावरण आदि तीनों प्रकार के मान, तीनों प्रकार की माया एवं तीनों प्रकार के लोभ की उपशमना होती है । किन्तु संज्वलन लोभ की त्रिभागगत
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