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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३७५ का स्वरूप सत्ता की अपेक्षा से उपान्त्य समय में और चौदह प्रकृतियों का चरम समय में क्षय होता है। उसके बाद घाती कर्म का सम्पूर्ण क्षय हो जाने से आत्मा केवली बन जाता है। नपुंसक वेद में श्रेणि करने वाला अनन्तानुबंधी चार का युगपत् क्षय करके मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व का क्रमश: अन्तर्मुहूर्त में क्षय करता है (सर्व प्रकृतियों का क्षपणकाल एवं सम्पूर्ण श्रेणिकाल दोनों ही अन्तर्महर्त प्रमाण हैं, कारण अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद है)। पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषाय का युगपत् क्षय करके नपुंसक वेद और स्त्रीवेद की सत्ता का एक साथ नाश करता है। उसी समय पुरुष वेद के बंध का विच्छेद करता है (सत्ता समयोन दो आवलिका प्रमाण रहती है)। एक समय न्यून दो आवलिका के बाद आत्मा हास्य षट्क और पुरुषवेद का युगपत् नाश करके संज्वलन क्रोध, मान व माया का क्रमश: क्षय करता है। __ लोभ के किट्टिकृत असंख्यात खण्डों को क्षय करके लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान का वरण करता है। - लोभ के उदय में श्रेणी करने वाला आत्मा लोभ की ही किट्टी करता है। - माया के उदय में श्रेणी करने वाला आत्मा माया व लोभ की किट्टी करता है। - मान के उदय में श्रेणी करने वाला आत्मा मान, माया व लोभ तीन की किट्टी करता है और . क्रोध के उदय में श्रेणी करने वाला आत्मा क्रोध, मान, माया और लोभ चारों की __ किट्टी करता है। स्त्रीवेद में श्रेणी करने वाला . स्त्रीवेद के उदय में श्रेणी करने वाला आत्मा पहले नपुंसक वेद का बाद में स्त्रीवेद का क्षय करता है। उसी समय पुरुषवेद का बंध विच्छेद हो जाने से आत्मा अवेदी बन जाता है। हास्यादि षट्क तथा पुरुषवेद का युगपत् क्षय करता है। शेष पूर्ववत् । पुरुषवेद में श्रेणी करने वाला___पुरुषवेद में श्रेणी करने वाला आत्मा सर्वप्रथम नपुंसक वेद का, बाद में स्त्रीवेद का क्षय करता है। पश्चात् हास्यादि षट्क का क्षय करके पुरुषवेद का नाश करता है। शेष पूर्ववत् ॥ ६९४-६९९ ॥ ९० द्वार: उपशम-श्रेणि अणदंसनपुंसित्थीवेयछक्कं च पुरिसवेयं च । दो दो एगंतरिए सरिसे सरिसं उवसमेइ ॥७०० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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