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________________ ३७२ द्वार ८९ इन स्पर्धकों में से क्रमश: वर्गणाओं को ग्रहण करके आत्मा विशुद्धि के प्रकर्ष से उसे अनन्तगुणहीन रस वाली करता है। वर्गणा से पूर्ववत् स्पर्धक बनाता है। यही अपूर्व-स्पर्धक है, कारण ऐसे स्पर्धक पहले कभी भी नहीं बने थे। ___ इस काल (अश्वकरणकरणाद्धा) में पुरुषवेद के सत्तागत दलिक को एक समय न्यून दो आवलिका प्रमाण काल में गुणसंक्रम के द्वारा क्रोध में संक्रमित करता है। अन्तिम समय में सर्व संक्रम के द्वारा संक्रमित कर उसका नाश करता है। ___ अपूर्व-स्पर्धक निर्माण की क्रिया पूर्ण होने के पश्चात् आत्मा किट्टी-करणाद्धा में प्रवेश करता है। यहाँ संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ के ऊपरवर्ती स्थितिगत दलिकों की किट्टी बनाता है। किट्टीकरण-पूर्व स्पर्धक व अपूर्वस्पर्धक में से क्रमश: वर्गणाओं को ग्रहण कर आत्मा अध्यवसायों की विशुद्धि के द्वारा उन्हें अनन्तगुण हीन रसवाली बनाता है तथा संख्या की अपेक्षा से महान् तारतम्य वाली वर्गणाओं को क्रमश: व्यवस्थित करता है। उदाहरणार्थ माना कि उन वर्गणाओं में १००, १०१, १०२, १०३, आदि रसांश हैं। उन रसाणुओं को आत्मविशुद्धि के द्वारा घटाकर १०, १५, २० आदि तक ले आता है और उन्हें इसी अन्तर में व्यवस्थापित करता है, यही किट्टीकरण है। वस्तुत: ये किट्टियाँ अनन्त हैं किन्तु स्थूल भेद की अपेक्षा वर्गीकरण करने पर किट्टियाँ १२ ही होती हैं--क्रोध की तीन, मान की तीन, माया की तीन और लोभ की तीन । माना कि कुल वर्गणायें (किट्टियाँ) १ से लेकर १०० रसाणु वाली हैं। इनमें से एक रसाणु वाली किट्टियों से लेकर ३३ रसाणु वाली किट्टयों का प्रथम वर्ग, ३४ रसाणुवाली किट्टयों से लेकर ६६ रसाणुवाली किट्टियों का दूसरा वर्ग तथा ६७ रसाणु वाली किट्टियों से लेकर १०० रसाणु वाली किट्टियों का तृतीय वर्ग । इस प्रकार क्रोधादि चारों कषाय की किट्टियों का तीन-तीन भाग में समावेश होता है। क्रोध के उदय में श्रेणी चढ़ने वाला आत्मा १२ किट्टियाँ करता है। . मान के उदय में श्रेणी चढ़ने वाला आत्मा, क्रोध का नाश हो जाने से शेष तीन कषाय की नौ किट्टियाँ ही करता है। माया. के उदय में श्रेणी करने वाला आत्मा क्रोध, मान दोनों का नाश हो जाने से माया और लोभ इन दो की ही छ: किट्टियाँ करता है। - लोभ के उदय में श्रेणी करने वाला आत्मा क्रोध, मान, माया का पूर्ववत् क्षय हो जाने से मात्र लोभ की ही तीन किट्टियाँ करता है। किट्टिकरणाद्धा पूर्ण हो जाने के पश्चात् क्रोध के उदय में श्रेणी चढ़ने वाला आत्मा, क्रोध की द्वितीय स्थिति में से प्रथम वर्ग के किट्टीकृत दलिकों को खींचकर उनकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति बनाता है और उसे समयाधिक आवलिका जितना रखकर शेष दलिक को भोगकर क्षीण कर देता है। इसी प्रकार द्वितीय और तृतीय किट्टीकृत दलिक को भी द्वितीय स्थिति में से खींचकर पूर्ववत् भोगकर क्षीण करता है। तीनों प्रकार की किट्टियों के भोगकाल में ऊपरवर्ती-स्थितिगत दलिक को गुणसंक्रम के द्वारा उत्तरोतर असंख्य गुण वृद्धि से संज्वलन मान में डालता है। तृतीय किट्टी के भोगकाल के अन्तिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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