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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३७३ समय में संज्वलन क्रोध के बंध, उदय, उदीरणा का युगपत् विच्छेद हो जाता है। समयोन दो आवलिका काल में बद्ध संज्वलन क्रोध के दलिक को छोड़कर शेष सत्तागत दलिक का भी विच्छेद हो जाता है, कारण सत्तागत शेष दलिक का मान में प्रक्षेप हो जाता है। तदनन्तर द्वितीय स्थितिगत मान की प्रथम किट्टी के दलिक को खींचकर आत्मा उसकी प्रथम स्थिति बनाता है और उसे अन्तर्मुहूर्त तक भोगता है। इसी समय क्रोध के बंधादि का विच्छेद हो जाने से क्रोध का एक समय न्यून दो आवलिका प्रमाण बद्ध दलिक जो सत्ता में शेष रहा था, उसे भी मान में संक्रमित कर अन्त में पुरुषवेद की तरह सर्व संक्रमण द्वारा नाश कर देता है। मान का प्रथम स्थिति के रूप में विद्यमान दलिक (प्रथम किदिकत) भी समयाधिक आवलिक प्रमाण शेष रहता है। तत्पश्चात द्वितीय स्थितिगत मान की द्वितीय किट्टी के दलिक को खींचकर प्रथम स्थिति बनाता है और उसे समयाधिक आवलिका मात्र रखकर शेष दलिक को भोगकर क्षीण करता है। पश्चात् तृतीय किट्टीगत दलिक को खींचकर (तृतीय किट्टी के द्वितीय स्थितिगत दलिक को) प्रथम स्थिति बनाता है और समयाधिक लिका प्रमाण दलिक को छोड़कर शेष दलिक को भोगता है। उसी समय मान के बंध, उदय उदीरणा का युगपत् विच्छेद हो जाता है और समयोन दो आवलिका में बद्ध सत्तागत दलिक को छोड़कर शेष सत्ता का भी नाश कर देता है। सत्तागत दलिक का माया के प्रथम किट्टीगत दलिक को भोगते समय क्रोध की तरह मान-माया में प्रक्षेप कर देता है। पुन: माया की द्वितीय स्थिति में से प्रथम किट्टिगत दलिक को खींचकर प्रथम स्थिति बनाता है और अन्तर्मुहूर्त तक उसका वेदन भी करता है। उसी समय संज्वलन मान के बन्धादि का विच्छेद करते हुए एक समय न्यून दो आवलिका में गुणसंक्रम के द्वारा माया में प्रक्षेप करता है। माया का प्रथम स्थिति में आगत प्रथम किट्टी का दलिक भी आवलिका मात्र ही शेष रहता है। तत्पश्चात् माया की द्वितीय किट्टी के दलिक को द्वितीय स्थिति में से खींचकर प्रथम स्थिति के रूप में बनाता है तथा समयाधिक आवलिका प्रमाण दलिक रखकर शेष का वेदन करता है। तृतीय किट्टी के दलिक को द्वितीय स्थिति में से खींचकर प्रथम स्थिति बनाकर समयाधिक एक आवलिका न्यून दलिक का वेदन भी करता है। उस समय माया के बंध, उदय, उदीरणा का विच्छेद हो जाता है। सत्ता समयोन दो आवलिका में बद्ध दलिक की ही होती है। सत्तागत शेष दलिक का गुणसंक्रम के द्वारा लोभ में प्रक्षेप हो जाता है। उसके बाद लोभ के प्रथम किट्टीगत दलिक को द्वितीय स्थिति में खींचकर प्रथम स्थिति बनाकर अन्तर्मुहूर्त तक उसका वेदन करता है। उस समय संज्वलन माया के बंधादि का विच्छेद हो जाता है। सत्तागत दलिक का समयोन दो आवलिका प्रमाण समय में लोभ में प्रक्षेप हो जाता है और प्रथम स्थिति के रूप में व्यवस्थापित वेद्यमान संज्वलन लोभ का प्रथम किट्टीगत दलिक भी आवलिका मात्र ही शेष रहता लोभ की द्वितीय किट्टी के दलिक को द्वितीय स्थिति में से खींचकर प्रथम स्थिति बनाकर उसका वेदन करता है। उसी समय तृतीय किट्टी के दलिक को ग्रहण कर उसकी सूक्ष्म किट्टियाँ बनाता है। किट्टीकरण का यह क्रम वहाँ तक चलता है जहाँ तक कि प्रथम स्थिति के रूप में व्यवस्थापित द्वितीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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