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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३७१ (ii) किट्टीवेदनाद्धा—किट्टीकृत कर्मप्रकृतियों का वेदनकाल, किट्टीवेदनाद्धा है। • अश्वकर्णकरणाद्धा में वर्तमान आत्मा अन्तरकरण की ऊपरवर्ती स्थितिगत संज्वलन कषाय के दलिकों में से प्रतिसमय अपूर्व स्पर्धकों की रचना करती है। प्रश्न-अपूर्व-स्पर्धक का क्या अर्थ है ? उत्तर-आत्मा अपने काषायिक अध्यवसायों के द्वारा अनन्तानन्त पुद्गलों से निर्मित अनन्तानंत स्कंधों को ग्रहण करता है । उन कर्मपुद्गलगत सबसे जघन्य रसवाले परमाणु में भी सर्वजीवों से अनंतगुण अधिक रस होता है। इतने रसवाले सजातीय परमाणुओं का समुदाय ‘वर्गणा' कहलाती है। पूर्वापेक्षा एक 'रसांश' जिनमें अधिक है, ऐसे अनन्त परमाणुओं का समुदाय दूसरी वर्गणा है। दूसरी वर्गणा के परमाणुगत रस की अपेक्षा एक रसांश जिनमें अधिक है, ऐसे अनन्तपरमाणुओं का समुदाय तीसरी वर्गणा है। इस प्रकार पूर्व की अपेक्षा एक-एक रसांश जिसमें अधिक हो ऐसे अनन्तानन्त परमाणुओं का समुदाय, चौथी, पाँचवीं, छठी आदि वर्गणा होती है। इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते अभव्य से अनंतगुण अधिक व सिद्ध के अनन्तवें भाग से अधिक रसांश वाले परमाणुओं से निष्पन्न वर्गणा अन्तिम होती है। कुल वर्गणायें सिद्ध के जीवों की अपेक्षा अनन्तवें भाग प्रमाण तथा अभव्य से अनंतगुणा है। इससे आगे वर्गणाएँ नहीं बनती, कारण अभव्य से अनन्तगुण रसांश वाले परमाणु की अपेक्षा से एक रसांश जिसमें अधिक हो ऐसा एक भी परमाणु नहीं मिलता। इस प्रकार एकोत्तर बढ़ते हुए रसाणुओं की समान संख्या वाले परमाणुओं से निष्पन्न वर्गणाओं का समुदाय स्पर्धक कहलाता है। स्पर्धक का व्युत्पत्ति निष्पन्न अर्थ भी यही है कि क्रमश: एक-एक रसांश की वृद्धि के द्वारा मानों जिसमें वर्गणाएँ परस्पर स्पर्धा कर रही हों । वस्तुत: ‘स्पर्धक' नाम अन्वर्थक __ पहले स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा के एक-एक परमाणु में जितने रसांश हैं उनकी अपेक्षा एक, दो, तीन यावत् संसारी सभी जीवों की अपेक्षा अनन्तगुण अधिक रसांश वाला एक भी परमाणु नहीं मिलता है। अत: उन परमाणुओं की वर्गणा भी नहीं बनती किन्तु प्रथम-स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा के एक परमाणु में जितने रसांश हैं उनकी अपेक्षा संसारी सर्व जीवों से अनन्तगुण अधिक रसांश वाले परमाणु मिलते हैं। ऐसे अनंत परमाणुओं का समुदाय द्वितीय स्पर्धक की पहली वर्गणा होती है। इसकी अपेक्षा एक, दो, तीन यावत् अभव्य से अनन्तगुण अधिक रसांश वाले परमाणुओं से निष्पन्न पुद्गल-समूह दूसरी, तीसरी, चौथी यावत् अन्तिम वर्गणा होती है और इन वर्गणाओं का समुदाय 'द्वितीय स्पर्धक' कहलाता इस प्रकार पूर्व-स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा में जितने रसांश हैं उनमें एक अधिक, सर्वजीवों से अनन्तगुण रसांश वाले परमाणुओं को मिलाने पर जो समुदाय बनता है वह तृतीय स्पर्धक की पहली वर्गणा है। इस स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा अभव्य से अनन्त गण रसांश वाले परमाणओं से निष्पन्न होती है। इस तरह अभव्य से अनन्तगुणी वर्गणाओं का समुदाय तृतीय स्पर्धक है ऐसे अनन्त स्पर्धकों से युक्त कर्म पुद्गल जीव प्रति समय बाँधता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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