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द्वार ८९
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ऊपरवाली स्थिति व दूसरी अन्तरकरण के नीचे की स्थिति । यहाँ आत्मा परिणाम विशुद्धि के द्वारा नीचे की आवलिकामात्र स्थिति को छोड़कर उट्ठलना संक्रमण से ऊपरवर्ती स्थितिगत सम्पूर्ण अनन्तानुबंधी का क्षय करता है तथा नीचे की स्थिति गत आवलिका प्रमाण दलिक को भी स्तिबक संक्रमण के द्वारा वेद्यमान प्रकृति में डाल देता है। इस प्रकार अनंतानुबंधी चतुष्क का क्षय करने के पश्चात् आत्मा दर्शनमोहनीय का क्षय करने के लिये पुन: तीन करण करता है। अनिवृत्तिकरण काल में वर्तमान आत्मा, पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले दर्शनत्रिक के दलिकों को छोड़कर, शेष दलिकों को उद्वलना संक्रमण के द्वारा अन्य प्रकृतियों में डाल देता है। जैसे मिथ्यात्व के दलिकों को सम्यक्त्व व मिश्र में डालता है। डालने का क्रम यह है कि प्रथम समय में अल्प, द्वितीय समय में असंख्यातगुण, तृतीय समय में उससे असंख्यातगुण, इस प्रकार क्रमश: संक्रमण करते-करते अन्तर्मुहूर्त के चरम समय में एक आवलिका प्रमाण दलिक को छोडकर उपान्त्य समय में संक्रमित दलिक की अपेक्षा असंख गुण अधिक दलिक का संक्रमण करता है। एक आवलिका प्रमाण दलिक रहता है उसे भी स्तिबुक संक्रमण के द्वारा अन्त में सम्यक्त्व में डाल देता है। इस प्रकार अन्तर्महर्त में मिथ्यात्व क्षय हो जाता है। तत्पश्चात् इसी क्रम से मिश्रमोह के दलिकों को भी सम्यक्त्व में डालकर क्षय कर देता है। तदनन्तर सम्यक्त्वमोह की स्थिति को अन्तर्मुहूर्त में अपवर्तना करण द्वारा घटाकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रखता है। उस दलिक को भी समयाधिक आवलिका प्रमाण शेष रखते हुए उदीरणा द्वारा भोगकर क्षय कर देता है। इसके बाद उदीरणा नहीं होती। समयाधिक आवलिकागत दलिक को केवल भोगकर ही क्षीण करता है। इस प्रकार आत्मा ‘क्षायिक सम्यग् दृष्टि' बन जाता है।
क्षपकश्रेणि के आरम्भक दो प्रकार के आत्मा होते हैं:-- १. बद्धायु (क्षपकश्रेणि के प्रारम्भ से पूर्व ही जिसका आयु बँध चुका है) व २. अबद्धायु (जिसने अभी पूर्वभव सम्बन्धी आयुष्य नहीं बाँधा है)। यदि श्रेणि आरम्भक बद्धाय है तो अनंतानबंधी कषाय का क्षय करने के बाद कदाचि तो श्रेणि वहीं समाप्त हो जाती है और कदाचित् मिथ्यात्व का उदय हो जाये तो आत्मा पुन: अनंतानुबंधी कषाय का बंधक बन जाता है। क्योंकि अनंतानुबंधी का बीजभूत मिथ्यात्व अभी बैठा है। पर, जिस आत्मा का मिथ्यात्व क्षय हो चुका है वह आत्मा अनंतानुबंधी कषाय का पुन: बंध कदापि नहीं करता क्योंकि कारण ही नष्ट हो चुका है। . जिस आत्मा ने अनंतानुबंधी चतुष्क तथा दर्शनत्रिक का क्षय कर दिया है वह यदि अपतित परिणामी है तो मरकर अवश्य देवगति में उत्पन्न होता है। पर, पतितपरिणामी आत्मा चारों गतियों में जाता है।
बद्धायु आत्मा यदि अनंतानुबंधी चतुष्क का क्षय करने के पश्चात् काल नहीं करता तो भी दर्शनत्रिक का क्षय करके अटक जाता है पर चारित्रमोह के क्षय का प्रयास नहीं करता।
प्रश्न अनंतानुबंधी चतुष्क व दर्शनमोहत्रिक का क्षय करके मरने वाला आत्मा कितने भव के पश्चात् मोक्ष जाता है?
उत्तर—तीसरे या चौथे भव में मोक्ष जाता है। जो आत्मा मरकर देवगति से नरकगति में जाता
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