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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३६७ नवरं इत्थी खवगा नपुंसगं खविय थीवेयं । हासाइछगं खविउं खवइ सवेयं नरो खवगो ॥६९९ ॥ -गाथार्थक्षपकश्रेणि----अनन्तानुबंधी चार, मिथ्यात्व, मिश्र एवं सम्यक्त्वमोहनीय, आठ कषाय, नपुंसक वेद स्त्री वेद, हास्य षट्क, पुरुषवेद और संज्वलन क्रोधादि चार का क्षय करता है।।६९४ ॥ श्रेणी करने वाला नपुंसक सर्वप्रथम अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करके मिथ्यात्व, मिश्र एवं सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करता है ।।६९५ ।। तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण आठ कषाय का क्षय करता है। पश्चात् नपुंसकवेद और स्त्रीवेद को एक साथ क्षय करके पुन: हास्य, रति, अरति, पुरुषवेद, शोक, भय एवं जुगुप्सा इन सातों का तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है ।।६९६-६९७ ।। लोभ की सर्वप्रथम असंख्य कीट्टियाँ करता है पश्चात् उन्हें क्षय करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण मोह का क्षय हो जाने से आत्मा लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त करता है ॥६९८ ॥ ' किन्तु स्त्रीवेदी क्षपक प्रथम नपुंसक वेद को क्षय कर पश्चात् स्त्रीवेद का क्षय करता है। पुरुषवेदी क्षपक नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादिषट्क को क्षय करके अन्त में पुरुषवेद को क्षय करता है ।।६९९ ।। -विवेचन क्षपकश्रेणि = यथायोग्य गुणस्थानों में कर्मक्षय करने की परिपाटी, क्रम । क्षपकश्रेणि का अधिकारी • आठ वर्ष से अधिक आयु वाला। • वज्रऋषभनाराच संघयणी। • शुद्धध्यानी। • ४-५-६ या ७ गुणस्थानवर्ती । यदि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी आत्मा पूर्वधर है तो श्रेणिकाल में शुक्लध्यानी होता है। शेष सभी आत्मा श्रेणिकाल में धर्मध्यानी होते हैं। अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना–वि+संयोजना, हटाना, जुदा करना अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय को सत्ता से हटाना, अलग करना। विसंयोजना व क्षपणा में अन्तर है। विसंयोजित कर्मप्रकृति निमित्त पाकर पुन: सत्ता में आ सकती है पर क्षय की हुई प्रकृतियाँ पुन: सत्ता में कदापि नहीं आतीं। श्रेणी के अप्रतिपत्ता, चारों गति के क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि अविरति, आत्मा, देशविरति तिर्यंच अथवा मनुष्य तथा सर्वविरति मनुष्य अनंतानुबन्धी कषाय का क्षय करने के लिये सर्वप्रथम यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण व निवृत्तिकरण रूप तीन करण करते हैं। जब आत्मा अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है तब अन्तरकरण के द्वारा अनन्तानुबंधी कषाय की स्थिति दो भागों में बँट जाती है। एक अन्तरकरण की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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