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प्रवचन-सारोद्धार
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है वह तीसरे भव में आयु पूर्णकर मनुष्य बनता है और उसी भव में मोक्ष जाता है। परं जो आत्मा यहाँ से मरकर मनुष्य या तिर्यंच में जाता है वह युगलिक बनता है। वहाँ से निकलकर तीसरे भव में देव बनता है क्योंकि युगलिक की देवगति ही होती है। देव से निकलकर मनुष्य जीवन प्राप्त कर चौथे भव में मोक्ष जाता है।
जो बद्धायु आत्मा सप्तक के क्षीण होने पर भी काल नहीं करता तो वह कदाचित् वैमानिक देव में जाता है। कदाचित् चारित्रमोहनीय की उपशमना का प्रयत्न करता है। मनुष्यभव के सिवाय आत्मा चारित्रमोह का उपशम नहीं कर सकता।
प्रश्न—जिस आत्मा का दर्शनमोहत्रिक क्षय हो चुका है वह सम्यग्दृष्टि है या असम्यग्दृष्टि ? उत्तर–सम्यग्दृष्टि है। प्रश्न–सम्यग्दर्शन के अभाव में वह सम्यग्दृष्टि कैसे होगा?
उत्तर-दर्शनमोहत्रिक में जो सम्यक्त्वमोह क्षय हुआ वह पौद्गलिक है। जिसकी मदशक्ति क्षीण हो चुकी है। मदनकोद्रव धान्य के समान जिनका मिथ्यास्वभाव चला गया है ऐसे मिथ्यात्व के पुद्गल 'ही सम्यक्त्वमोह रूप है। यहाँ उसी का क्षय हुआ है, न कि तत्त्वार्थश्रद्धानरूप आत्मपरिणति का। वास्तविक सम्यग्दर्शन तो यही है और ऐसा सम्यग्दर्शन दर्शनमोहत्रिक के क्षय हो जाने पर और अधिक विशुद्धतर बन जाता है। जैसे मोतियाबिंद की परत हटने से मनुष्य की दृष्टि विशुद्धतर बन जाती है। अर्थात् दर्शनमोहत्रिक के क्षय हो जाने पर आत्मानुभूति रूप निश्चय सम्यक्त्व रहने से आत्मा सम्यग्दृष्टि ही होता है।
यदि क्षपकश्रेणि का आरम्भक अबद्धायु है तो सप्तक के क्षीण होने पर विशुद्ध अध्यवसायवश निश्चित रूप से चारित्रमोह का क्षय करने हेतु प्रयत्न करता है। सर्वप्रथम वह यथाप्रवृत्ति आदि तीन करण करता है। इनका क्रम निम्नानुसार है
• यथाप्रवृत्तिकरण......अप्रमत्त गुणस्थान में। • अपूर्वकरण. ....अपूर्वकरण गुणस्थान में। • अनिवृत्तिकरण......अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में।
अपूर्वकरण गुणस्थान में स्थितिघात, रसघात आदि के द्वारा प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण, कषाय अष्टक को आत्मा इस प्रकार क्षय करता है कि अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में उसकी स्थिति मात्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी ही शेष रहती है। अनिवृत्तिकरण के संख्याता भाग बीतने के पश्चात् स्त्यानर्द्धित्रिक, नरकगति, नरकानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी, चार जाति, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों के दलिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने रखकर शेष दलिकों को उद्वलना कारण के द्वारा उद्वेलित करता है। तत्पश्चात् गुणसंक्रम के द्वारा इन्हें बध्यमान प्रकृतियों में डालकर क्षीण करता है। अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, कषाय-अष्टक के सम्पूर्ण क्षय होने से पूर्व वे सोलह प्रकृतियाँ क्षय हो जाती हैं और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् कषाय-अष्टक का क्षय होता है ऐसा सूत्र का अभिप्राय है।
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