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प्रवचन - सारोद्धार
विहार करते हुए या एक स्थान में रहते हुए यदि मुनि को संयम के प्रति अरति उत्पन्न हो जाये तो मन को धैर्यपूर्वक संयम में जोड़ने का पूर्ण प्रयास करे पर खिन्न न बने
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८. स्त्री - तीव्रराग का हेतु होने से स्त्री स्वयं परीषह रूप है। राग के हेतुभूत स्त्री की गति, हाव-भाव, इंगित, आकार को देखने पर भी जो मुनि यह सोचता है कि - त्वचा, रक्त, मांस, मेद, स्नायु, हड्डियाँ, नाडियाँ व छिद्रों से दुर्गन्धयुक्त नारी के रूप को स्तन, नयन, योनि, मुख व जंघाओं मुग्ध बना आत्मा ही रूप मानता है। नारी के रूप में मुग्ध आत्मा की विडंबना तो देखो, वैसे थूक की घृणा करता है पर नारी के अधर का पान करता है। स्तन व योनि के 'स्राव' की घृणा करता है पर सेवन भी उन्हीं का करता है । वह स्त्री परीषह पर विजय प्राप्त करता है अर्थात् वह नारी के अंग-प्रत्यंग, गति - स्थान, हाव-भाव, विलास, चित्ताकर्षक चेष्टाओं से कदापि आकृष्ट नहीं होता। यहाँ तक कि मोक्ष मार्ग के लिये बाधा रूप नारी के प्रति रागरंजित दृष्टि तक नहीं डालता ।
९. चर्या
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- द्रव्य और भाव से चर्या के दो भेद हैं । ग्रामानुग्राम विचरण करना द्रव्य चर्या है भाव से एक स्थान में रहना भावचर्या है । यही मुनि के लिये परीषह रूप है । अप्रमत्त होकर ग्राम, नगर, कुलादि में अनियमित वास करते हुए अनासक्त भाव से मासकल्पी विहार करने वाला मुनि चर्या परीषह का विजेता है ।
१०. नैषेधिकी— सावद्यकर्म व गमनागमनादि क्रिया का निषेध करना प्रयोजन है जिसका वह 'नैषेधिकी' है । शून्यघर, श्मशान आदि में सभी सावद्य क्रियाओं का त्यागकर शान्तभाव से स्वाध्याय करना नैषेधिक परीषह है । अन्यमते -- नैषेधिकी के स्थान पर 'निषद्या' ऐसा पाठ मानते हैं, उसका अर्थ है कि स्त्री, पशु, नपुंसक आदि से रहित स्थान में रहते हुए अनुकूल व प्रतिकूल उपसर्गों को शान्तिपूर्वक सहन करना निषद्या परीषह है ।
११. शय्या -- जहाँ और जिस पर सोते हैं वह शय्या कहलाती है जैसे उपाश्रय, संथारा आदि । उपाश्रय की भूमि सम-विषम हो, धूल कचरे वाली हो, वसति अतिशीत व अति उष्ण हो, संथारा ऊँचा-नीचा, कठिन व कोमल हो तथापि परीषह विजेता मुनि तनिक भी उद्विग्न न बने ।
१२. आक्रोश- अनिष्ट वचन परीषह रूप है । उन्हें सहना आक्रोश परीषह है। यदि कहने वाले की बात सत्य है तो क्रोध करना व्यर्थ है ? प्रत्युत वहाँ ऐसा सोचना चाहिये कि यह मेरा उपकारी है जो सही बात कहकर मुझे शिक्षा दे रहा है । मैं भविष्य में ऐसी गलती कभी नहीं करूंगा । यदि कहने वाले की बात असत्य है तो भी क्रोध करना व्यर्थ है क्योंकि उससे हमारा कोई लेना देना नहीं है। ऐसा सोचकर क्रोध न करना वरन् अनिष्ट वचन को शान्तभाव से सहन करना आक्रोश परीषह पर विजय पाना है।
१३. वध -- ताड़न- तर्जन वध है । वही परीषह रूप है । यदि कोई दुष्ट आत्मा हाथ, एड़ी, लात, चाबुक आदि के द्वारा द्वेषवश मुनि को मारे-पीटे तो भी मुनि उस पर क्रोध न करे परन्तु शान्तभाव से उसे सहन करे व सोचे कि - पुद्गलों का उपचय रूप यह शरीर आत्मा से सर्वथा भिन्न है । आत्मा का कोई नाश नहीं कर सकता। यह तो मुझे अपने कृतकर्मों का फल ही मिला है।
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