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________________ द्वार ८६ ३६२ १४. याञ्चा-याचना करना..प्रार्थना करना। यह भी परीषह रूप है। मुनि संयम में उपयोगी वस्त्र, पात्र, अन्न, पान, वसति आदि दूसरों से ही उपलब्ध करते हैं। यद्यपि इनकी याचना करने में मुनि को लज्जा आती है तथापि संयम का पालन करने के लिये आवश्यकता पड़ने पर मुनि को इनकी याचना अवश्य करनी चाहिये। १५. अलाभ-इच्छित वस्तु की प्राप्ति लाभ है। उसका न मिलना अलाभ है। यह परीषह रूप है। याचना करने पर भी यदि इच्छित पदार्थ न मिले तो भी मुनि यह सोचकर प्रसन्न व शान्त बना रहे कि-'दूसरों के घर विपुलमात्रा में अनेक प्रकार के खादिम-स्वादिम आदि पदार्थ हैं। यह दाता की इच्छा है कि वह मुनि को दे या न दें। न देने पर ज्ञानी मुनि कुपित नहीं होते।' १६. रोग रोग रूप परीषह, रोगपरीषह है । ज्वर, खाँसी, श्वास आदि रोग होने पर भी गच्छ से निर्गत जिनकल्पी मुनि चिकित्सा नहीं करते किन्तु रोग को स्वकृत कर्म का फल मानते हुए समतापूर्वक सहन करते हैं। गच्छवासी स्थविरकल्पी मुनि लाभ-हानि का विचार कर सहन भी करते हैं और विधिपूर्वक . चिकित्सा भी करवाते हैं। १७. तृण-स्पर्श-तृणादि के कठोर स्पर्श को सहन करना तृणस्पर्श परीषह है। गच्छवासी या गच्छनिर्गत मुनियों के लिये परमात्मा ने छिद्ररहित तृणों के उपयोग की अनुज्ञा दी है। जिन मुनियों को तृण के उपयोग की अनुज्ञा दी है वे मुनि आर्द्रभूमि पर तृण बिछाकर उस पर संथारा व उत्तरपट्टा लगाकर सोते हैं। कभी ऐसा प्रसंग भी आता है कि चोर उपधि का अपहरण करले अथवा संथारा व उत्तरपट्टा अत्यन्त जीर्ण हो...पतला हो तो मुनि को तृण बिछाना पड़े। जिससे शरीर में चुभन-पीड़ा हो परन्तु मुनि उसे समतापूर्वक सहन करे ।। १८. मल-पसीने के कारण जमी हुई धूल मल है। मल परीषह रूप होता है, जमा हुआ मल गर्मी की ऋतु में पसीने से आर्द्र होकर भयंकर दुर्गन्ध मारता है। इससे मन उद्विग्न बनता है पर मुनि न तो उससे उद्विग्न बने, न ही मल को दूर करने के लिये स्नानादि की अभिलाषा करे परन्तु उसे समभाव से सहन करे। १९. सत्कार-आहार-पानी, वस्त्र-पात्र आदि का दान, वन्दन, अभ्युत्थान, आसन-प्रदान, सद्भूत गुणों का गान करना आदि गौरव सत्कार है। अभिमानोत्पादक होने से सत्कार भी परीषह रूप है। दूसरों से सत्कार मिलने पर मुनि गर्वित न बने तथा सत्कार न मिले तो प्रद्वेष नहीं करे। २०. प्रज्ञा-जिस से वस्तु-स्वरूप का अवबोध हो वह प्रज्ञा है। अतिशय प्रज्ञा भी परीषह रूप है। मुनि अपनी तीव्र, विशिष्ट बुद्धि का गर्व न करे परन्तु ऐसा सोचकर विनम्रता व सरलता रखे कि 'विश्व में मुझसे भी अधिक अनेक प्रज्ञावान व प्रतिभा सम्पन्न आत्मा हैं।' प्रज्ञा न हो तो खेद न करे प्रत्युत इसे कर्मफल मानकर सहन करे। २१. अज्ञान-प्रज्ञा से विपरीत अज्ञान है। यह भी कष्टप्रद होने से परीषह रूप है। यदि मुनि को ज्ञान का क्षयोपशम अधिक न हो तो भी मन में खेद नहीं करे कि मैं आगम नहीं जानता, मैं मूर्ख हूँ इत्यादि। पर इसे अपने ही कर्मों का फल समझकर शान्ति रखे। विशिष्ट ज्ञान हो तो गर्वित न बने। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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