________________
प्रवचन-सारोद्धार
.
३५९
300030251001044020100505444100
सबद
-
-
-
-
-
-गाथार्थबावीस परीषह-१. क्षुधा, २. पिपासा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंश, ६. अचेलक, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. नैषेधिकी, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याञ्चा, १५. अलाभ, १६. रोग, १७. तृणस्पर्श, :१८. मल, १९. सत्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान और २२. सम्यक्त्व -ये बावीस परीषह हैं ।।६८५-६८६ ॥
कर्म में परीषह-दर्शनमोहनीय में दर्शनपरीषह का, ज्ञानावरणीय में प्रज्ञा और अज्ञान का, अन्तराय में अलाभ का, चारित्रमोह में आक्रोश, अरति, स्त्री, नैषेधिकी, अचेलक, यांचा, सत्कार का, वेदनीय में प्रथम पाँच, चर्या, शय्या, मल, वध, रोग और तृणस्पर्श का समवतार होता है। शेष कर्मों के उदय में परीषह नहीं होते ।।६८७-६८९ ।।
गुणस्थान में परीषह-बादर संपराय गुणस्थान पर्यंत बावीस परीषह होते हैं, सूक्ष्म संपराय गुणस्थान, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में चौदह परीषहों का उदय होता है तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में ग्यारह परीषहों का उदय होता है ।।६९० ॥
काल में परीषह—एक साथ उत्कृष्ट से २० परीषह और जघन्य से एक परीषह होता है। क्योंकि शीत और उष्ण, चर्या और नैषेधिकी परस्पर विरोधी होने से एक साथ उदय में नहीं आते ।।६९१ ॥
-विवेचन परीषह = संयम मार्ग में दृढ़ व स्थिर रहने हेतु तथा कर्म-निर्जरार्थ जो सहन किये जाये वे ‘परीषह' कहलाते हैं। वे बावीस हैं। इनमें से 'दर्शन' और 'प्रज्ञा' परीषह संयम मार्ग में स्थिरता लाने हेतु हैं तथा शेष बीस परीषह कर्म-निर्जरार्थ हैं। २२ परीषह
१. क्षुधा २. पिपासा ३. शीत ४. उष्ण ५. दंश ६. अचेल
७. अरति ८. स्त्री ९. चर्या १०. नैषेधिकी ११. शय्या १२. आक्रोश
१३. वध १४. याञ्चा १५. अलाभ १६. रोग १७. तृण-स्पर्श १८. मल
१९. सत्कार २०. प्रज्ञा २१. अज्ञान २२. सम्यक्त्व।
१. क्षुधा—सभी वेदनाओं में क्षुधा (भूख) की वेदना महान् मानी गई है। उस वेदना को जो शान्तभाव से सहन करता है अथवा अकल्प्य आहार का त्याग करते हुए पेट की ऑतों को जलाने वाली भूख को आगम-संमत विधि से आहार ग्रहण कर शान्त करता है वह आत्मा क्षुधा परीषह पर विजय प्राप्त करता है। जो भूख की वेदना से व्याकुल बनकर अकल्प्य आहार ग्रहण कर लेता है वह क्षुधा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org