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________________ प्रवचन - सारोद्धार ३९ यहाँ प्रवचन शब्द से 'जिनागम' अर्थ अभीष्ट है । 'सार' का अर्थ है निष्कर्ष या निचोड़ । उद्धार अर्थात् निकालकर व्यवस्थित करना । अत: 'प्रवचनसारोद्धार' का समन्वित अर्थ है- वह ग्रन्थ जिसमें प्रवचन- जिनागम के सारभूत तत्त्वों को उद्धृतकर व्यवस्थित किये गये हों । इस दृष्टि से इस ग्रन्थ का नाम वास्तव में सार्थक है । यह बात इसके अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है । ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली प्राचीन है। प्रत्येक विषय को द्वार प्रतिद्वार के द्वारा समझाया गया है । कुल मिलाकर यह ग्रन्थ २७६ द्वारों में विभक्त है । २५९९ गाथाओं से समृद्ध यह ग्रन्थ वर्ण्य-विषयों के विवेचन की अपेक्षा Collection संग्रह की दृष्टि से अनूठा है । यदि इसे 'इनसाइक्लोपीडिया ऑफ जैनिज्म' से उपमित करें तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । वस्तुत: यह ग्रन्थ गागर में सागर का उदाहरण प्रस्तुत करता है । विषय से सम्बद्ध उपविषयों का जिस खूबी से इसमें संग्रह हुआ है यह ग्रन्थकार की सूक्ष्म-बुद्धि, संभावना शक्ति एवं प्रबुद्ध वृत्ति का परिचायक है । २७६ द्वारों में सरल से सरल विषय जैसे चैत्यवन्दन से संबंधित १० त्रिकों का वर्णन, गुरुवन्दन-प्रतिक्रमणविधि, धान्यों के नाम, अतीत, अनागत एवं वर्तमान तीर्थंकर परमात्माओं के नाम, वर्तमान तीर्थपतियों के माता-पिता, गणधर, * प्रवर्तिनी आदि के नाम, लांछन, वर्ण, आयु आदि तथा गंभीर से गंभीर विषय जैसे कर्मवाद, नवतत्त्व, नय-निक्षेप, लोक-संरचना, अध्यवसाय स्थान आदि की बड़ी सूक्ष्म व विस्तृत विवेचना भी की गई है। T प्रस्तुत ग्रन्थ पद्य में है । इसकी भाषा प्राकृत है मात्र एक श्लोक संस्कृत (क्रमांक ९७१) में है । अधिकांश गाथायें आर्या छन्द में हैं कतिपय गाथाओं में अन्य छन्द भी प्रयुक्त हुए हैं । इस ग्रन्थ की प्राकृत सरल व सुबोध है । कहीं-कहीं देश्य शब्दों के प्रयोग से अवश्य कठिनता का आभास होता है । विषयवस्तु का प्रतिपादन स्पष्ट है। अनावश्यक अलंकार एवं सुदीर्घ सामासिक पदों का प्रयोग न होने से भावों को समझने में कहीं अवरोध नहीं आता । यत्र-तत्र सहज समागत अलंकारों का प्रयोग शोभादायक है I इस ग्रन्थ को पढ़ने से ज्ञात होता है कि यह समूचा ग्रन्थ ग्रन्थकार की मौलिक रचना नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ की बहुत सी गाथायें प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत हैं। ऐसी ५०० से अधिक गाथायें हैं जिनका मूलस्रोत आगम, निर्युक्ति, भाष्य, प्रकरण एवं कर्मग्रन्थ आदि में है । 'भारतीय प्राच्यतत्त्वप्रकाशन समिति' पिंडवाड़ा से प्रकाशित प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतियों में उद्धृत गाथाओं के पश्चात् ब्रेकेट में उनके मूल स्थानों का स्पष्ट उल्लेख किया है। जिज्ञासु वहाँ अवश्य देखें । उद्धृत गाथाओं के अतिरिक्त भी कुछ ऐसी गाथायें हैं जिनका मूलस्रोत तो नहीं मिलता पर ' हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति' आदि प्राचीन ग्रन्थों में उद्धृत गाथाओं के रूप 'उनका उल्लेख अवश्य मिलता है। इससे स्पष्ट है कि ऐसी गाथायें भी ग्रन्थकार द्वारा रचित नहीं है किन्तु प्राचीन है । इस उद्धरण का उल्लेख भी 'भारतीय प्राच्य तत्त्व प्रकाशन समिति' से प्रकाशित प्रस्तुत ग्रंथ में द्रष्टव्य है । वस्तुतः विषयसंग्रह की दृष्टि से यह आकरग्रन्थ है । प्रवचनसारोद्धार के प्रणेता प्रवचनसारोद्धार के प्रणेता विद्वद्वरेण्य आचार्यदेव श्री नेमिचन्द्रसूरि हैं । उनका जीवनवृत्त अनुपलब्ध है, केवल सत्ताकाल एवं गुरुपरंपरा ही उपलब्ध होती है । यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ में ग्रन्थकार के समय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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