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प्रवचन-सारोद्धार
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५. शाश्वत चैत्य-शाश्वत जिन मन्दिर शाश्वत चैत्य है। अथवा अन्य प्रकार से भी चैत्य पंचक होते हैं।
१. शाश्वत चैत्य-देवलोक सम्बन्धी सिद्धायतन, मेरुशिखर, कूट, नन्दीश्वर, रुचकवरद्वीप के चैत्य । २. निश्राकृत भक्ति चैत्य- भरत आदि के द्वारा बनाये गये भक्ति चैत्य । ३. भक्ति चैत्य-निश्राकृत व अनिश्राकृत दो प्रकार के हैं।
४. मंगल चैत्य-मथुरा नगरी के गृहद्वारों के ऊपरी भाग पर बनाई गई मंगल मूर्तियाँ ॥ ६६०-६६२॥
५. साधर्मिक चैत्य-स्वधर्मी की प्रतिमा। जैसे वारत्तक मुनि के पुत्र ने अपने रमणीय देवगृह में वारत्तक मुनि की प्रतिमा विराजमान की थी। उसके लिये रूढ़ शब्द 'स्थली' है। कहानी
वारत्तक नगर के राजा का नाम अभयसेन तथा मन्त्री का नाम वारत्तक था। एकदा धर्मघोष मुनि मंत्री के घर भिक्षा के लिये पधारे । मंत्री-पत्नी ने मुनि को वहोराने के लिए खीर से भरा पात्र उठाया। उठाते समय पात्र में से घृत मिश्रित खीर का एक बिन्दु जमीन पर गिर गया। परमात्मा द्वारा बताई गई भिक्षाविधि के अनुसार भिक्षा ग्रहण करने में प्रयत्नशील महात्मा धर्मघोष मुनि ने उस भिक्षा को छर्दित दोषयुक्त जानकर खीर नहीं वहोरी और मंत्री के घर से यूं ही लौट गये। हाथी पर बैठे हुए वारत्तक मंत्री ने यह सब देखा और विचार किया कि मुनि ने मेरे घर की भिक्षा क्यों नहीं ली? वह इस प्रकार सोच ही रहा था कि इतने में जमीन पर गिरे हुए घृत बिन्दु पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं। थोड़ी देर बाद मक्खियों पर गिरोली झपटने लगी। गिरोली को देखकर गिरगिट झपटा.उस पर बिल्ली झपटी.... बिल्ली पर कुत्ता झपटा, यह देखकर दूसरे कुत्ते ने उस कुत्ते को दबोचा। परस्पर दोनों कुत्तों में भिडन्त हो गई। यह देखकर अपने-अपने कुत्तों के पक्ष में उनके मालिक भी मैदान में कूद पड़े। उनके बीच
या। यह देखकर वारत्तक मंत्री समझ गया कि घी की इतनी सी बँद का जमीन पर गिरना कितने बड़े पाप का कारण है ! बस, इसी कारण पापभीरु महात्मा ने मेरे घर से भिक्षा ग्रहण नहीं की। कितना महान् है भगवान का धर्म? वीतराग परमात्मा के सिवाय ऐसा धर्म बताने में कौन समर्थ हो सकता है? आज से मेरे भी वे ही देव हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट अनष्ठान ही मेरे द्वारा करणीय है। इस प्रकार सोचते....सोचते उसे संसार से वैराग्य हो गया, शुभ ध्यान की लौ लग गई और मंत्री को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। देवता ने उसे साधुवेष अर्पित किया और वारत्तक मंत्री मुनि बन गये। दीर्घकाल पर्यन्त संयम का पालन कर आराधना के बल से केवलज्ञान प्राप्त किया व अन्त में सिद्ध बने ।
उन्हीं वारत्तक मुनि के पुत्र ने पितृप्रेम से प्रेरित होकर रजोहरण, मुहपत्ति आदि साधु योग्य उपकरणों से युक्त पिता-मुनि की प्रतिमा बनवाकर रम्य देवालय में स्थापित की। वहाँ ‘दानशाला' भी खुलवाई। ऐसे स्थान आगमिक भाषा में 'साधर्मिक स्थली' कहलाते हैं ॥ ६६३ ॥
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