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________________ द्वार ७९ ३४८ 360204035:4465654 निस्सानिस्सकयाई मंगलकयमुत्तरंगंमि ॥६६२ ॥ वारत्तयस्स पुत्तो पडिमं कासीय चेइए रम्मे। तत्थ य थली अहेसी साहम्मिय चेइयं तं तु ॥६६३ ॥ -गाथार्थ७९ : चैत्यपंचक-१. भक्तिचैत्य, २. मंगलचैत्य, ३. निश्राकृतचैत्य, ४. अनिश्राकृतचैत्य तथा ५. शाश्वतचैत्य-इस प्रकार जिनेश्वरों ने पाँच प्रकार के चैत्य बताये हैं।६५९ ॥ सिद्धान्तविदों ने कहा है कि गृह मन्दिर में विराजित प्रतिमा भक्तिचैत्य है। दरवाजे के ऊपर के भाग में खुदी हुई (लगाई हुई) जिन प्रतिमा मंगलचैत्य है। गच्छ विशेष के जिनालय में विराजमान प्रतिमा निश्राकृत चैत्य है। जहाँ सभी गच्छवाले आकर आराधना करते हैं ऐसे जिनालय में विराजमान प्रतिमा अनिश्राकृत है। शाश्वत प्रतिमायें शाश्वत चैत्य हैं। इस प्रकार चैत्य पंचक कहलाते हैं।६६०-६६१॥ शाश्वत चैत्य देवलोक में हैं। भरत महाराजा आदि के द्वारा बनाये गये चैत्य भक्तिचैत्य हैं। भक्तिचैत्य दो प्रकार के हैं-निश्राकृत और अनिश्राकृत । दरवाजे के ऊपर बनाया गया मंगलचैत्य है। वारत्तकमुनि के पुत्र ने सुन्दर चैत्यगृह बनाकर उसमें पिता-मुनि की मूर्ति विराजित की जो स्थली के नाम से प्रसिद्ध हुई वह साधर्मिक चैत्य है ।।६६२-६६३ ।। -विवेचनचैत्य = जिन प्रतिमा, मन्दिर। चैत्य के पाँच भेद हैं। १. भक्ति चैत्य ४. अनिश्राकृत चैत्य २. मंगल चैत्य ५. शाश्वत चैत्य ॥ ६५९ ।। ३. निश्राकृत चैत्य १. भक्ति चैत्य-प्रतिदिन त्रिकालपूजन, वन्दन आदि के लिये घरमन्दिर में प्रतिष्ठापित यथोक्तलक्षण सम्पन्न जिन-प्रतिमा भक्ति चैत्य है। २. मंगल चैत्य-गृहद्वार के ऊपरी बारशाख में मंगल हेतु बनाई गई जिन प्रतिमा मंगल चैत्य है। मथुरा नगरी में प्रत्येक घर के द्वार पर जिन प्रतिमा बनवाने की परम्परा थी अन्यथा वह घर ही गिर जाता था। स्तुति में वर्णन आता है कि “जिस नगरी के प्रत्येक घर के द्वार पर मंगल हेतु पार्श्वनाथ परमात्मा की प्रतिमा बनाई जाती थी उस नगरी के दर्शन पुण्यहीन आत्मा नहीं कर सकते ।” ३. निश्राकृत चैत्य-गच्छ विशेष से सम्बन्धित मन्दिर, प्रतिमा आदि, जहाँ वही गच्छ प्रतिष्ठा आदि करवा सकता है। उसके अतिरिक्त अन्य कोई भी वहाँ कुछ नहीं करा सकता वह निश्राकृत चैत्य ४. अनिश्राकृत चैत्य-जहाँ सभी गच्छ के लोग प्रतिष्ठा, दीक्षा, मालारोपण आदि कार्य कर सकते ___ हों वह अनिश्राकृत चैत्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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