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प्रवचन - सारोद्धार'
सम्बन्धी मुनियों का आचार पर्युषणा कल्प है। अर्थात् आत्मरमणता कराने वाले मुनियों का आचारं
विशेष |
१. ऊणोदरी करना ।
२. एक को छोड़कर शेष सभी विगय का त्याग करना ।
३. पीठ - फलक- संथारा आदि का ग्रहण करना ।
४. मात्रा आदि के लिये मात्रक ग्रहण करना ।
५. पूर्व ग्रहण किये हुए राख, पाषाणखंड आदि का त्याग करके नये ग्रहण करना ।
६. केश - लोच करना ।
७. दीक्षा न देना ।
८. वर्षाकालीन आराधना में सहायक उपकरणों को दुगुना ग्रहण करना तथा चातुर्मास लगने . के बाद नये उपकरण ग्रहण न करना ।
९. पाँच कोश से उपरान्त जाने-आने का त्याग करना इत्यादि वर्षाकाल का समाचार है।
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बाईस तीर्थंकरों के मुनि इनका पालन अनियमित करते हैं अतः ये अस्थित कल्प है। प्रथम और अन्तिम जिन के मुनि इनका पालन नियमित रूप से करते हैं। पर्युषणा - कल्प जघन्य और उत्कृष्ट भेद से दो प्रकार का है—
(i) जघन्यतः भादवा सुद पाँचम से कार्तिक पूर्णिमा तक सत्तर अहोरात्र पर्यन्त पर्युषणा कल्प करते हैं। यह पर्युषणा कल्प प्रथम व अन्तिम जिन के स्थविर - कल्पी मुनियों के होता है ।
(ii) उत्कृष्टत: आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक पर्युषणा- कल्प करते हैं । जिन कल्पियों के निश्चित रूप से चार महिने का ही पर्युषणा- कल्प होता है, क्योंकि जिन कल्पियों का आचार निरपवाद है ।। ६५७-६५८ ।।
चैत्य-पंचक
७९ द्वार :
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भत्ती मंगलचे निस्सकड अनिस्सकडचेइयं वावि । सासयचेइय पंचममुवइटुं जिणवरिदेहि ॥६५९ ॥ गिहि जिrपडिमा भत्तिचेइयं उत्तरंगघडियंमि । जिणबिंबे मंगलचेइयंति समयन्नुणो बिंति ॥ ६६० ॥ निस्सकडं जं गच्छस्स संतियं तदियरं अनिस्सकडं । सिद्धाययणं च इमं चेइयपणगं विणिद्दिट्ठ ॥६६१ ॥ नयाई सुरलो भत्तिकयाइं च भरहमाईहिं ।
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