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________________ ३४६ ब्राह्मणों का भीगे हुए बीजों की तरह पुनर्जन्म नहीं होता । अर्थात् भीगे हुए बीज की जैसे उत्पादक शक्ति नष्ट हो जाती है, वैसे ब्राह्मणों का ब्राह्मणत्व ही नष्ट हो जाता है ' ॥ ६५५ ॥ द्वार ७८ ५. मास-कल्प — शीतोष्ण काल में एक क्षेत्र में साधु अधिक से अधिक एक मास ठहर सकते हैं। चातुर्मास के सिवाय निष्कारण एक क्षेत्र में इससे अधिक ठहरना साधु को नहीं कल्पता। यह मास-कल्प है। बाईस तीर्थंकरों के साधु, जिनकल्पी और महाविदेह के साधुओं के मास-कल्प का कोई नियम नहीं होता । एक स्थान पर एक वर्ष भी रह जाते हैं और वर्षारहित काल हो तो चातुर्मास में भी विहार कर लेते हैं, किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के मुनि मास-कल्प नियत करते हैं अन्यथा संयम में दोष लगने की सम्भावना रहती है (i) शय्या या शय्यातर के साथ राग होना । (ii) लोग - निन्दा करें कि यह मुनि घर का मोह छोड़कर दूसरों के घर के मोह में फँस गये हैं इसलिए विहार नहीं करते । (iii) विहार करने से भव्य आत्माओं का जो उपकार हो सकता है, वह नहीं होता । (iv) दूसरे क्षेत्र में रहे हुए गुणी- पुरुषों के वन्दनादि का लाभ अथवा अपने सम्मान का लाभ नहीं मिलता। (v) सुविहित चारित्र धर्म का पालन नहीं होता । (vi) विहार करते हुए अनेक देशों में भ्रमण करने से अनेक प्रकार के तथ्य अर्थात् लौकिक व लोकोत्तर व्यवहार का ज्ञान देखने और सुनने को मिलता है। एक स्थान में रहने वाले इनसे वंचित रहते हैं । (vii) जिनाज्ञा की विराधना होती है। कहा है- 'मासकल्प को छोड़कर अन्य विहार आगम-विरुद्ध है ।' बृहत्कल्प भाष्य में कहा है कि- बाईस जिन के मुनि दोषों के अभाव में पूर्व क्रोड़ वर्ष तक एक स्थान में रह सकते हैं। यदि विहार भूमि जीव-जंतु व कीचड़ रहित हो तो चातुर्मास में भी विहार कर सकते हैं। कारण हो तो मासकल्प पूर्ण किये बिना ही विहार कर जाते हैं । जिनकल्पिकों का व महाविदेह के मुनियों का भी यही आचार है । अपवाद—–—अन्यक्षेत्र, अकालग्रस्त, उपद्रवग्रस्त अथवा रोगाक्रान्त हो, संयम के अनुकूल न हो, शरीर के लिये आहार- पानी की दृष्टि से अनुकूल न हो, रोगी की सेवा व अध्ययन का प्रबल कारण हो तो एक क्षेत्र में एकमास से अधिक भी रहना कल्पता है । ऐसी स्थिति में यद्यपि बाह्य मासकल्प नहीं होता पर वसति परिवर्तन व एक ही वसति में स्थान परिवर्तन द्वारा भाव मासकल्प अवश्य होता है । बाईस तीर्थंकर के मुनि ऋजुप्राज्ञ होने से एक स्थान पर अधिक ठहरे तो भी दोषों की सम्भावना नहीं रहती || ६५६ ॥ ६. पर्युषणा - कल्प- परि = सर्वथा, वसन = रहना विधिपूर्वक, कल्प = आचार अर्थात् पर्युषणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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