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द्वार ७८
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निवपिंडंमि न कप्पति पुरिमअंतिमजिणजईणं ॥६५५ ॥ पुरिमेयरतित्थकराण मासकप्पो ठिओ विणिद्दिट्ठो। मज्झिमगाण जिणाणं अट्ठियओ एस विण्णेओ ॥६५६ ॥ . पज्जोसवणाकप्पो एवं पुरिमेयराइभेएणं । उक्कोसेयरभेओ सो नवरं होइ विन्नेओ ॥६५७ ॥ चाउम्मासुक्कोसो सत्तरि राइंदिया जहन्नो उ। थेराण जिणाणं पुंण नियमा उक्कोसओ चेव ॥६५८ ॥
-गाथार्थअस्थितकल्प-१. सचेलक, २. औद्देशिक, ३. प्रतिक्रमण, ४. राजपिंड ५. मासकल्प ६. पर्युषणकल्प-ये छ: कल्प अस्थित हैं।६५१॥
प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का अचेलक धर्म है। शेष बाईस तीर्थंकरों का धर्म दोनों प्रकार का है-सचेलक और अचेलक ॥६५२ ॥
बाईस तीर्थंकरों के मुनियों का यह कल्प है कि जिस मुनि को उद्देश करके आहार आदि बनाया हो उसी को वह नहीं कल्पता, शेष मुनियों को कल्पता है। उनकी यही मर्यादा है ॥६५३ ।।
प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के मुनियों का सप्रतिक्रमण धर्म है पर बाईस तीर्थंकरों के साधु कारण उपस्थित होने पर ही प्रतिक्रमण करते हैं, अन्यथा नहीं ॥६५४ ॥
प्रथम और अन्तिम जिन के मुनियों को राजपिंड सम्बन्धी अशनादि चार, वस्त्र, पात्र, कंबल तथा पादपूंछन लेना नहीं कल्पता ॥६५५ ॥ प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के मुनियों के लिये मासकल्प स्थित कल्प कहा है। किन्तु मध्यम तीर्थंकरों के मुनियों के लिये मासकल्प अस्थितकल्प बताया है ॥६५६ ॥
प्रथम, अन्तिम और मध्यम जिनेश्वरों के मुनियों के लिये पर्युषणाकल्प, मासकल्प की तरह ही समझना चाहिये। पर जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से पर्युषणाकल्प दो प्रकार का है।६५७ ।।
स्थविरकल्पी मुनियों का पर्युषणाकल्प उत्कृष्टत: चार मास का एवं जघन्यत: सत्तर दिन का है। किन्तु जिनकल्पियों का पर्युषणाकल्प नियम से उत्कृष्ट ही होता है ।।१५८ ।।
-विवेचनअस्थित = बाईस तीर्थंकरों के मुनियों के लिये जिनका पालन अनिवार्य नहीं होता ऐसा कल्प = साधु-समाचारी।
१. अचेलक-वस्त्ररहित अथवा जीर्ण-शीर्ण वस्त्र वाला । व्यक्ति के सम्बन्ध से धर्म भी आचेलक्य कहलाता है। अचेल दो प्रकार के होते हैं:
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