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प्रवचन-सारोद्धार
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• प्रथम और अन्तिम जिन के साधुओं के द्वारा सतत आसेवनीय होने से यह दस प्रकार का
कल्प स्थित-कल्प कहलाता है। प्रथम व अन्तिम जिन के मुनियों की तरह बाईस जिन के साधुओं के भी शय्यातर पिंड, चार-महाव्रत, पुरुष-प्रधान धर्म और कृति-कर्म ये चार कल्प तो सतत आसेवनीय हैं, शेष अचेलत्व आदि छ: में भजना है अत: उनकी अपेक्षा से ये चार स्थित कल्प हैं व शेष छ: अस्थित कल्प हैं। शय्यातर पिंडं ग्रहण करने का सभी तीर्थंकरों ने निषेध किया है। अत: सभी के लिये स्थित कल्प है। बाईस तीर्थंकरों का धर्म चार महाव्रत रूप है, क्योंकि वे स्त्री को परिग्रह में गिनते हैं। किन्तु स्त्री को अलग गिनने से प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का धर्म पाँच महाव्रत रूप
• प्रथम व अन्तिम जिन के साधु-साध्विओं का बड़ा-छोटापन बड़ी दीक्षा की अपेक्षा से गिना
जाता है। बावीस तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों में बड़ा-छोटापन दीक्षा-पर्याय से ही गिना जाता है। सभी साधु-साध्वी पर्याय ज्येष्ठ को वन्दन करते हैं। यह कृतिकर्म कल्प है। साध्वी की अपेक्षा यह विशेष है कि पर्याय ज्येष्ठ भी साध्वी पुरुष की प्रधानता होने से आज के दीक्षित भी मुनि के द्वारा वन्दनीय नहीं होती। इस प्रकार शय्यातर आदि चारों ही कल्प सभी तीर्थंकर
के मुनियों द्वारा सतत आसेवनीय होने से स्थित कल्प है। ___स्त्री में अनेक दोषों की सम्भावना रहती है। जैसे—स्त्री स्वभाव से तुच्छ होने के कारण जल्दी गर्वित बन जाती है। पराभव से नहीं डरती। इस प्रकार माधुर्य से वश होने वाली स्त्री में अन्य भी अनेक दोषों की सम्भावना रहती है ॥ ६५० ॥
|७८ द्वार:
अस्थित-कल्प
आचेलक्कुद्देसिय पडिक्कमणे रायपिंड मासेसु । पज्जुसणाकप्पंमि य अट्ठियकप्पो मुणेयव्वो ॥६५१ ॥ आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं होइ सचेलो अचेलो वा ॥६५२ ॥ मज्झिमगाणं तु इमं कडं जमुद्दिस्स तस्स चेवत्ति । नो कप्पइ सेसाणं तु कप्पइ तं एस मेरत्ति ॥६५३ ॥ सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स व पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ॥६५४ ॥ असणाइचउक्कं वत्थपत्तकंबलयपायपुंछणए ।
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