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द्वार ७६-७७
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-गाथार्थक्षेत्रों में चारित्र संख्या-बावीस तीर्थंकरों के काल में तथा पाँच महाविदेह में तीन चारित्र होते हैं। इस काल में तथा महाविदेह में दूसरा और तीसरा चारित्र नहीं होता। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के काल में सामायिक आदि पाँचों ही चारित्र होते हैं ॥६४९ ॥
-विवेचन क्षेत्र समय
चारित्र संख्या पाँच भरत बावीस तीर्थंकर के
सामायिक, सूक्ष्मसंपराय और पाँच ऐरवत समय में
यथाख्यात-चारित्र। पाँच भरत प्रथम व चरम
सामायिक, सूक्ष्मसंपराय, पाँच ऐरवत तीर्थंकर के समय में
यथाख्यात, छेदोपस्थापनीय
और परिहारविशुद्धि चारित्र। (iii) पाँच महाविदेह • सर्वकाल में
सामायिक, सूक्ष्मसंपराय
और यथाख्यात चारित्र । यद्यपि सभी चारित्र सामायिक चारित्रपूर्वक होते हैं, किन्तु मोहनीय कर्म के क्षयोपशम की विचित्रता से ये भेद किये गये हैं ॥ ६४९ ॥
७७ द्वार: ।
स्थितकल्प
26666658000388800388080888888888888888888888
सिज्जायरपिंडंमि य चाउज्जामे य पुरिसजेटे य। किइकम्मस्स य करणे ठिइकप्पो मज्झिमाणंतु ॥६५० ॥
-गाथार्थस्थितकल्प-१. शय्यातरपिंड २. चार महाव्रत, ३. पुरुष ज्येष्ठ, ४. कृतिकर्म-ये चार मध्यमजिन कालीन स्थितकल्प हैं।६५० ॥
-विवेचन स्थित = सतत आचरण करने योग्य, कल्प = साधु-समाचारी । सामान्यत: १० प्रकार का है:१. अचेलक ५. मासकल्प
९. कृतिकर्म २. औद्देशिक ६. पर्युषणाकल्प
१०. चार महाव्रत ३. प्रतिक्रमण ७. शय्यातरपिंड
(प्रथम व अन्तिम ४. राजपिंड ८. पुरुषप्रधानधर्म
जिन के ५ महाव्रत हैं।
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