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द्वार ७३
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को तथा दूसरों के सद्भूत गुणों को छुपाना, चोर की तरह सर्वत्र शंका करना और गूढ़-आचरण करना मायावी भावना है ।। ६४३ ।। अभियोगी भावना के पाँच प्रकार
१. कौतुक २. भूमि कर्म ३. प्रश्न ४. प्रश्नाप्रश्न ५. निमित्त ।
(i) कौतुक-बालक आदि की रक्षा के निमित्त स्नान करना, हाथ ऊँचा-नीचा घुमाकर मंत्रोच्चारण करना, थू-थू करना, धूप-रखना, आग में नमक डालना। कहा है कि बालक आदि की रक्षा के लिये स्नान कराना, होम करना, नजर आदि उतारने के लिये सिर पर हाथ फेरना, नमक आग में डालना, धूप करना, विचित्र वेष धारण करना, भय पैदा करना, स्तंभन व बंधन करना।
(ii) भूमि कर्म वसति, शरीर, उपधि आदि को डोरे से बाँधना, उनके चारों ओर भस्म से कार निकालना (रक्षा हेतु)।
(iii) प्रश्न-दूसरों से अपनी लाभ-हानि के सम्बन्ध में पूछना तथा स्वयं अंगूठा, काँच, तलवार, जल आदि में देखकर दूसरों को लाभ-हानि बताना ।
(iv) प्रश्नाप्रश्न–देवी द्वारा स्वप्न में या देवाधिष्ठित घण्टी आदि के माध्यम से कहा गया शुभ-अशुभ, जीवन-मरण दूसरों को बताना।
(v) निमित्त—निमित्त देखकर लाभालाभ बताना। निमित्त = त्रैकालिक वस्तु को बताने वाला ज्ञान विशेष।
इन पाँचों भावनाओं को यदि मुनि अपना गौरव बढ़ाने हेतु प्रयोग करे तो अभियोगी देवता के योग्य कर्म बंधन करता है।
- अपवाद–अपने स्वार्थ या गौरव से रहित मात्र शासन की उन्नति के लिये यदि मुनि निमित्त आदि का प्रयोग करता है तो कोई दोष नहीं लगता प्रत्युत शासन की प्रभावना करने से उच्च-गोत्र कर्म का बंधन करता है । ६४४ ॥ आसुरी भावना के पाँच प्रकार
१. विग्रहशीलता २. संसक्त तप ३. निमित्त कथन ४. निर्दयता ५. निरनुकंपा।
(i) विग्रहशीलता-कलह करके पश्चात्ताप न करना। चाहे गृहस्थ हो या साधु, क्षमा माँगने वाले को क्षमा न देना।
(ii) संसक्त तप—आहार, उपधि, शय्या आदि की प्राप्ति के लिये उपवास आदि तप करना ।
(iii) निमित्त कथन-अभिमान या अभिनिवेश वश त्रैकालिक लाभालाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण सम्बन्धी भविष्य बताना।
(iv) निर्दयता—पृथ्वी आदि में जीव का अस्तित्व न मानते हुए निर्दयतापूर्वक उन पर चलना, बैठना। ‘ये जीव हैं' ऐसा दूसरों के द्वारा कहने पर भी पश्चात्ताप न करना ।
(v) निरनुकंपा किसी दीन-दुःखी व दयापात्र को देखकर अनुकम्पा न करना ।। ६४५ ।।
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