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प्रवचन-सारोद्धार
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(i) श्रुतज्ञान का अवर्णवाद - श्रुतज्ञान सम्बन्धी असद्भूत दोष कहना । जैसे—पृथ्वीकाय आदि
जीवों का वर्णन षड्जीवनिकाय में भी है और शास्त्र-परिज्ञा अध्ययन में भी है। प्राणातिपात निवृत्ति आदि का वर्णन भी जगह-जगह है। प्रमाद-अप्रमाद का वर्णन भी बार-बार किया है। इस प्रकार शास्त्रों में पुनरुक्ति है। सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ज्योतिष शास्त्रों की मोक्ष-मार्ग के लिये क्या आवश्यकता है? मुक्ति के इच्छुक साधुओं के लिये योनि-प्राभृतादि की क्या आवश्यकता है? क्योंकि ये शास्त्र
संसार-वर्धक है। (ii) केवली का अवर्णवाद - केवली को ज्ञान और दर्शन का उपयोग क्रमश: होता है या एक
साथ ? यदि क्रमश: होता है तो ज्ञान के समय दर्शन का उपयोग
और दर्शन के समय ज्ञान का उपयोग नहीं होगा। इससे यह सिद्ध होता है कि ज्ञानोपयोग के समय दर्शन का आवरण है
और दर्शनोपयोग के समय ज्ञान का आवरण है। यदि दोनों उपयोग एक साथ हैं तो परस्पर संकर हो जायेंगे। अत: ये बातें
अयुक्त हैं। (iii) धर्माचार्य का अवर्णवाद | इनकी जाति ठीक नहीं है, इनका व्यवहार ठीक नहीं है, इन्हें
उचित-अनचित का ज्ञान नहीं है। इस प्रकार गरु के साथ अविनय-पूर्वक वर्तन करना । इतना ही नहीं, गुरु का छिद्रान्वेषण
करना, उनके असद्भूत दोष कहना, सदा गुरु से प्रतिकूल रहना। (iv) संघ का अवर्णवाद -- पशुओं का भी संघ होता है, यह फिर नया कौनसा संघ है ?
जिसकी इतनी प्रशंसा की जाती है। (v) साधु का अवर्णवाद - ये साधु एक-दूसरे के द्वेषी हैं। एक-दूसरे की स्पर्धा में विचरण
करते हैं अन्यथा सभी साथ क्यों नहीं रहते? ये साधु धीरे-धीरे चलते हैं, इसका कारण यह है कि ये मायावी हैं, लोगों को ठगते हैं। बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों के सामने भी ये लोग निष्ठुर बने रहते हैं, ये प्रकृति से 'क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टाश्च:' होते हैं। गृहस्थ के सामने खुशामद करके अपनी आत्मा की वंचना करते हैं। ये संग्रह-खोर हैं। मुँह से तो अनित्यता का ढिंढोरा पीटते हैं
और वास्तव में एक तुम्बी भी फूट जाये तो शोक मनाते हैं। अन्यत्र संघ के अवर्णवाद के स्थान पर 'सव्व साहूणं' ऐसा पाठ है अर्थात् चौथा साधु का अवर्णवाद है और साधु के अवर्णवाद के स्थान पर पाँचवी मायावी भावना है अर्थात् अपने आत्म-स्वरूप
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