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४. आसुरी - भवनवासी देवों की तरह भावना करना । ५. सम्मोही - मूढात्मा देव विशेष की तरह भावना करना ।
पूर्वोक्त पाँच प्रकार के देवों का जो स्वभाव है उस स्वभाव में वर्तन करना, वह भावना कहलाती है । यदि साधु ऐसे स्वभाव में वर्तन करे तो वह चारित्र - पालन के पुण्य- फलस्वरूप मरकर कन्दर्प, किल्विषी आदि तत्तद् स्वभाव वाले देवों में उत्पन्न होता है। पंचवस्तुक ग्रंथ में कहा है कि जो मुनि कन्दर्पी आदि ५ अशुभ भावनाओं में वर्तन करता है वह तत्तद् स्वभाव वाले देवों में उत्पन्न होता है । किन्तु 'जो सर्वथा चारित्रहीन है उसके लिये देवगति की भजना समझना । कदाचित् वह तत् तत् स्वभाव वाले देवों में भी उत्पन्न हो सकता है, कदाचित् नरक, निर्यंच या मनुष्य में भी उत्पन्न हो सकता है' ॥ ६४१ ॥ कन्दर्प- भावना के पाँच प्रकार
१. कन्दर्प, २. कौकुच्य, ३. दुःशील, ४. स्वपर हास्यजनन, ५. परविस्मयजनन । १. कन्दर्प
(i) जोर-जोर से हँसना ।
(ii) परस्पर हँसी-मजाक करना ।
(iii) गुर्वादि के साथ भी निष्ठुरता, वक्रता एवं उच्छृंखलतापूर्वक व्यवहार करना । (iv) काम - कथा करना ।
(v) कामोपदेश, कामविषयक प्रशंसा करना ।
२. कौकुच्य—- भांड चेष्टावत् हावभाव । उसके दो भेद हैं.
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(i) कायकौकुच्य
(ii) वाक्कौकुच्य
३. दुःशील - संभ्रम और आवेश के
द्वार ७३
स्वयं न हँसे पर भौंहें, नेत्रादि से ऐसी चेष्टायें करे कि जिसे देखकर दूसरों को हँसी आ जाये ।
हास्योत्पादक वचन बोलना, मुँह से विविध जीवों की आवाज, वाजंत्रों की आवाज निकाल कर दूसरों को हँसाना । वश बिना विचारे बोलना, शरद्कालीन गर्वित सांढ की तरह जल्दी-जल्दी चलना। बिना सोचे-समझे जल्दी-जल्दी कार्य करना । शान्ति से बैठे-बैठे ऐसी चेष्टा करना कि मानों गर्व से फूट रहा हो ।
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४. स्वपर - हास्यजनन — भांड की तरह दूसरों के वेष की, बोली की नकल निकाल कर स्वयं हँसना और दूसरों को भी हँसाना ।
५. परविस्मय - जनन – इन्द्रजालिक की तरह कुतूहल करके तथा प्रहेलिका, वक्रोक्ति, दंतकथा आदि कहकर लोगों को आश्चर्य चकित बनाना ॥ ६४२ ॥
किल्विषी भावना के पाँच प्रकार
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५. साधु इन पाँचों का अवर्णवाद बोलने वाले तथा अपनी शक्ति को छुपाने वाले मायावी पुरुष की भावना ।
१. श्रुतज्ञान, २. केवली,
३. धर्माचार्य,
४. संघ और
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