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प्रवचन - सारोद्धार
कंदप्पे कुक्कुइए दोसीलत्ते य हासकरणे य । परविम्हियजणणेऽवि य कंदप्पोऽणेगहा तह य ॥६४२ ॥ सुयनाण केवलीणं धम्मायरियाण संघ साहूणं । माई अवण्णवाई किव्विसियं भावणं कुणइ ॥६४३ ॥ कोउय भूईकम्मे पसिणेहिं तह य पसिणपसिणेहिं । तहय निमित्तेणं चिय पंचवियप्पा भवे सा य ॥६४४ ॥ सइ विग्गहसीलत्तं संसत्ततवो निमित्तकहणं च । निक्किवयावि य अवरा पंचमगं निरणुकंपत्तं ॥६४५ ॥ उम्मग्गदेसणा मग्गदूसणं मग्गविपडिवित्ती य । मोहो य मोहजणणं एवं सा हवइ पंचविहा ॥६४६ ॥ -गाथार्थ
पच्चीस अशुभ भावना—१. कन्दर्पी, २. देवकिल्विषी, ३. अभियोगिकी, ४. आसुरी, सम्मोही - ये पाँच अप्रशस्त भावनायें हैं || ६४१ ।।
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१. कन्दर्प, २. कौकुच्य, ३. दुःशीलत्त्व, ४. हास्यकरण एवं ५. परविस्मय - जनन आदि कन्दर्प के अनेक प्रकार हैं ।।६४२ ॥
५.
१. श्रुतज्ञान, २. लेवली, ३. धर्माचार्य, ४. संघ और ५ साधु आदि की निन्दा करने वाले तथा मायावी आत्मा की भावना किल्विषीक भावना है ||६४३ ॥
१. कौतुक, २. भूतिकर्म, ३. प्रश्न ४. प्रश्नाप्रश्न तथा ५. निमित्त आभियोगिकी भावना के पूर्वोक्त पाँच भेद हैं ||६४४ ॥
१. सदा कलह करने की प्रवृत्ति, २. संसक्ततप, ३. निमित्तकथन, ४. निर्दयता एवं ५. निरनुकंपा - ये पाँच आसुरी भावना के प्रकार हैं || ६४५ ।।
१. उन्मार्गदेशना, २. मार्गदूषण, ३. मार्ग विप्रतिपत्ति, ४. मोह और ५. मोह जनन - इस प्रकार पंचविध संमोही भावना है ||६४६ ॥
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-विवेचन
१. कन्दर्पी— कन्दर्प अर्थात् कामदेव, भांड की तरह हँसी-मजाक में मस्त देव विशेष । उनकी तरह निरन्तर हँसी-मजाक करना कन्दर्पी भावना है।
२. किल्विषी - किल्विषाः पाप, पापरूप होने से जो देवताओं में अछूत माने जाते हैं वे किल्विषी देव कहलाते हैं उन देवों की तरह चिन्तन करना ।
३. अभियोगी — किंकर स्थानीय देवों की तरह चिन्तन करना ।
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