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द्वार ७२-७३
बैठकर उपयोग करना तथा धर्म के साधनभूत औधिक व औपग्रहिक उपकरणों का उपयोग भी गुरु की आज्ञा से ही करना। अन्यथा अदत्त परिभोग का पाप लगता है।
(v) समान धर्म वाले संविग्न साधुओं के द्वारा ग्रहण किये हुए क्षेत्र में उनकी आज्ञा लेकर मासकल्प आदि के लिये क्षेत्रसम्बन्धी अवग्रह (५ कोश पर्यन्त) ग्रहण करना । उपाश्रय, पाट आदि वस्तुओं का उनकी आज्ञा से उपयोग करना ॥ ६३८ ॥ चतुर्थ महाव्रत की भावनायें
(i) आहार का संयम रखना, स्निग्ध, रसयुक्त या प्रमाणोपरान्त आहार न करना। स्निग्ध आहार करने से धातु पुष्ट बनते हैं, वासना उत्तेजित होती है। अधिक आहार ब्रह्मचर्य को दूषित करने के साथ कायक्लेशकारक भी है।
(ii) स्नान, विलेपन आदि विभूषाप्रिय आत्मा ब्रह्मचर्य का विराधक है। अत: विभूषा का त्याग करना।
(ii) नारी व उसके मुख, स्तन आदि अंग-उपांग को विकार भाव से नहीं देखना। इससे ब्रह्मचर्य खण्डित होता है।
(iv) स्त्री के साथ अधिक परिचय करना, स्त्री से संसक्त वसति में रहना, स्त्री द्वारा काम में लिये गये आसनादि पर बैठना, ब्रह्मचर्य का घातक है।
(v) तत्त्वज्ञ मुनि स्त्री सम्बन्धी कथा कदापि न करे। स्त्री कथा से मन चंचल बनता है।
इन भावनाओं से भावित अन्त:करण वाला मुनि धर्म का अनुप्रेक्षक, धर्म की आराधना में तत्पर तथा ब्रह्मचर्य का पोषक होता है ।। ६३९ ।। पंचम महाव्रत की भावनायें
(i) साधु इष्ट विषय में राग और अनिष्ट विषय में प्रद्वेष न करे, परन्तु इन्द्रियों पर संयम रखते हुए बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह से विरत बने, अथवा
(ii. v) शुभ-अशुभ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के प्रति राग-द्वेष नहीं रखे। शब्दादि के प्रति राग या द्वेष रखने से पाँचवां महाव्रत खण्डित होता है।
__इस प्रकार पाँच-महाव्रतों की कुल पच्चीस भावनायें होती हैं। समवायांग व तत्त्वार्थ सूत्र में ये भावनायें अन्य तरह से बताई गई हैं । ६४० ।।
७३ द्वार:
अशुभ-भावना
कंदप्पदेव किदिवस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा। एसा हु अप्पसत्था पंचविहा भावणा तत्थ ॥६४१ ॥
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