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________________ प्रवचन - सारोद्धार (ii) उचित उपयोगपूर्वक भिक्षा ग्रहण करना, उपाश्रय में आकर प्रकाश में भिक्षा का अच्छी तरह से अवलोकन करना, फिर खाना अन्यथा हिंसा की सम्भावना रहती है I (iii) विधिपूर्वक उपधि लेना व रखना । ऐसा करने वाला 'अजुगुप्सक' कहलाता है। यह अहिंसक है। इससे विपरीत आचरण वाला जुगुप्सक है । वह हिंसक है । • ३३३ (iv) मन को नि:शंक व निर्मल रखना । अन्यथा प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की तरह मानसिक हिंसा - जन्य कर्म-बंधन होता है 1 (v) उपयोगपूर्वक बोलना अन्यथा कर्म- बंधन होता है । तत्त्वार्थ सूत्र में पाँचवीं भावना एषणा समिति रूप बताई है ॥ ६३६ ॥ द्वितीय महाव्रत की भावनायें (i) हँसी-मजाक का त्याग कर, सत्य वचन बोलना । हँसी में झूठ बोलने की सम्भावना रहती है । (ii) विवेकपूर्वक बोलना, सोचकर बोलना। बिना सोचे बोलने से कभी-कभी असत्य भाषण हो जाता है। इससे वैर-बंधन, स्वयं को पीड़ा तथा दूसरे जीवों के नाश की सम्भावना रहती है । (iii) क्रोध असत्य भाषण का कारण है। इसका त्याग करने वाला ही वास्तव में असत्य का त्यागी हो सकता है। अतः मुनि इसका अवश्य त्याग करे । (iv) लोभी आत्मा धनलिप्सा के कारण निश्चित असत्यभाषी होता है । अत: मुनि को लोभ का त्याग करना चाहिये । (v) भयार्त्त आत्मा अपने प्राणों की रक्षा के लिये असत्य भाषण करता है । अत: मुनि को निर्भय रहना चाहिये ।। ६३७ ॥ तृतीय महाव्रत की भावनायें (i) साधु को जिनाज्ञानुसार देवेन्द्र, राजा, गृहपति, शय्यातर व साधर्मिक इन पाँच प्रकार के अवग्रह की याचना स्वामी के पास जाकर स्वयं ही करना चाहिये, दूसरों के माध्यम से नहीं। कभी उस व्यक्ति का मालिक के साथ विवाद हो जाये तो मालिक रुष्ट होकर साधु को बाहर निकाल सकता है । मालिक के सिवाय किसी अन्य से याचना करने पर अदत्तपरिभोग आदि दोष लगते हैं 1 (ii) मालिक के द्वारा तृण आदि ग्रहण करने की स्पष्ट अनुज्ञा देने पर ही मुनि अनुज्ञापित अवग्रह से तृणादि ग्रहण करे । (iii) मालिक के द्वारा अमुक समय तक अवग्रह दे दिया हो तो भी मुनि रोगादि आने पर मात्रा - ठल्ला आदि परठने के स्थान, पात्र, हाथ-पाँव आदि प्रक्षालन करने के स्थानों की समय-समय पर याचना करता रहे ताकि दाता खुश रहे। (iv) आगमोक्त विधि से गृहीत आहार, पानी का गुरु की आज्ञापूर्वक मांडली में अथवा अकेले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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