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द्वार ७२
से दीहरायं समुपेहिया सया, मुणी हु मोसंपरिवज्जए सिया ॥६३७ ॥ सयमेव उ उग्गहजायणे घडे, मइमं निसम्मा सइ भिक्खु उग्गहं । अणुन्नविय भुंजीय पाणभोयणं जाइत्ता साहम्मियाण उग्गहं ॥६३८ ॥ आहारगुत्ते अविभूसियप्पा इत्थी न निज्झाय न संथवेज्जा। बुद्धे मुणी खुड्डकहं न कुज्जा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं ॥६३९ ॥ जे सद्द रूव रस गंधमागए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए। गेहिं पओसं न करेज्ज पंडिए, से होइ दंते विरए अकिंचणे ॥६४० ॥
-गाथार्थपच्चीस शुभभावना-१. ईर्यासमिति का पालन करने में सदा प्रयत्नशील, २. आहार-पानी उपयोगपूर्वक लाने व वापरने वाला, ३. आदान-निक्षेप-जुगुप्सक, ४. संयत मनवाला और ५. संयत वचन वाला॥६३६ ॥
१. उपहास रहित सत्य वचन बोलना, २. विचारपूर्वक बोलना, ३-४-५. क्रोध, लोभ और भय का त्यागी मुनि सदा मृषावाद का त्यागी होता है और शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करता है॥६३७॥
१. अवग्रह की याचना स्वयं करे, २. अवग्रह दाता का वचन श्रवण करने के पश्चात् ही वस्तु ग्रहण करे, ३. स्पष्ट मर्यादापूर्वक अवग्रह की याचना करे, ४. गुरु आदि की आज्ञा पाने के पश्चात् ही आहार-पानी वापरे तथा ५ स्वधर्मी से उनके अवग्रह की अनुमति लेकर ही उपाश्रय आदि का उपयोग करे ॥६३८॥
१. आहार का संयम रखे, २. शारीरिक विभूषा न करे, ३. सरागदृष्टि से स्त्री को न देखे, ४. स्त्री का परिचय न करे तथा ५. तत्त्वज्ञ मुनि स्त्रीकथा भी न करे-इस प्रकार धर्म का अनुप्रेक्षक मुनि अपने ब्रह्मचर्य को पुष्ट करता है ।।६३९ ।।
तत्त्वज्ञ मुनि १. शुभ या अशुभ शब्द, २. रूप, ३. रस, ४. गंध, एवं ५. स्पर्श को प्राप्त कर प्रीति अथवा अप्रीति न करे। ऐसा मुनि दाँत, विरत और अकिंचन होता है ।।६४० ।।
-विवेचनअहिंसादि महाव्रतों की दृढ़ता एवं स्थिरता के लिये जो अभ्यास किया जाता है वह भावना कहलाती है।
जिस प्रकार अभ्यास के अभाव में विद्या नष्ट हो जाती है वैसे ही भावनाओं के अभाव में महाव्रत नष्ट हो जाते हैं।
प्रत्येक महाव्रत की ५-५ भावनायें हैं। प्रथम महाव्रत की भावनायें
(i) समितिपूर्वक गमन करना अन्यथा हिंसा होती है।
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