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________________ प्रवचन - सारोद्धार नियत संख्या नहीं है । अंगशास्त्र वर्तमान में ग्यारह हैं पर अंगबाह्यशास्त्रों की संख्या का उल्लेख आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में 'अनेक' कहकर किया है। 1 आगमों की प्रामाणिकता के विषय में सभी संप्रदाय एकमत नहीं हैं । श्वेतांबर मूर्तिपूजक परंपरा ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूलसूत्र, २ चूलिका सूत्र, ६ छेदसूत्र तथा १० प्रकीर्णक — इस प्रकार ४५ आगमों को प्रमाण मानती है । इनके अतिरिक्त नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं को भी मानती है और आगम के समान ही इनमें श्रद्धा रखती है। जबकि श्वेतांबर स्थानकवासी - तेरापंथी परंपरा केवल ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूलसूत्र, ४ छेदसूत्र और १ आवश्यक - इस प्रकार कुल ३२ आगमों को ही प्रमाणभूत स्वीकार करती है । अन्य आगम, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं को वे प्रमाणभूत नहीं मानते । जहाँ तक दिगंबर परंपरा का प्रश्न है वह वर्तमान के ४५ या बत्तीस आगम में से किसी भी आगम को प्रमाण नहीं मानती तो उन पर आधारित नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं को प्रामाणिक मानने का उनके लिए प्रश्न ही नहीं उठता। उनके अनुसार सभी आगम लुप्त हो चुके हैं । तात्पर्य यह है कि दिगंबर परंपरा को छोड़कर श्वेतांबरों के सभी संप्रदाय अंग और उपांग ग्रन्थों को एकमत मान्य करते हैं । किन्तु मूलसूत्र, चूलिकासूत्र, छेदसूत्र एवं प्रकीर्णक ग्रन्थों के विषय में उनमें परस्पर मतभेद हैं। मूलसूत्र ३७ सामान्यत: उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक और पिण्ड - नियुक्ति ये ४ मूलसूत्र माने जाते हैं पर इनकी संख्या और नामों के सन्दर्भ में सभी श्वेतांबर संप्रदायें एकमत नहीं हैं। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक को तो सभी श्वेतांबर एकमत मूलसूत्र मानते हैं किन्तु आवश्यक और पिण्डनिर्युक्ति को लेकर मतभेद हैं । प. पू. महोपाध्याय श्री समयसुन्दर जी, भावप्रभसूरिजी तथा प्रो. बेबर आदि पाश्चात्य विद्वानों ने आवश्यक को मूलसूत्र माना है पर स्थानकवासी, तेरापंथी आवश्यक को मूलसूत्र नहीं मानते । ये दोनों संप्रदाय आवश्यक एवं पिंडनिर्युक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोग द्वार को मूलसूत्र मानते हैं । श्वेतांबर परंपरा में कुछ आचार्यों ने ओघनिर्युक्ति को भी मूलसूत्र माना है। इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एकरूपता का अभाव है I छेदसूत्र दशाश्रुतस्कंध, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ और जीत - कल्प- ये छ: छेदसूत्र माने जाते हैं । मूर्तिपूजक परंपरा पूर्वोक्त सभी छेदसूत्रों को मानती है पर स्थानकवासी और तेरापंथी परंपरा महानिशीथ और जीतकल्प को नहीं मानती । वे दोनों मात्र ४ ही छेदसूत्र मानती हैं । प्रकीर्णक प्रकीर्णक १० हैं । स्थानकवासी और तेरापन्थी प्रकीर्णकों को नहीं मानते । जहाँ तक प्रकीर्णकों के नाम का प्रश्न है । श्वेतांबर मूर्ति-पूजक संघ के आचार्यों में भी कुछ मतभेद पाया जाता है। लगभग ९ नामों में एकरूपता है किन्तु भक्तपरिज्ञा, मरणविधि और वीरस्तव – ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न आचार्यों ने अपने वर्गीकरण में भिन्न-भिन्न रूप से लिखे हैं। किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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