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________________ ३३० कहलाते हैं। ज्ञातव्य है कि यापनीय परम्परा के अपराजितसूरि ने भगवती आराधना की टीका में इन्हें निर्यामक कहा है । पार्श्वस्थ, अवसन्न व अगीतार्थ को निर्यामक नहीं बनाया जाता । किन्तु जो गीतार्थ होने से कालोचित परिचर्या और विशेषतः वैयावच्च करने में निपुण हैं, वे ही निर्यामक होते हैं । उत्कृष्टतः अड़तालीस परिचारक होते हैं रोगी की करवट बदलने आदि शारीरिक सेवा करने वाले अभ्यन्तर द्वार पर खड़े रहने वाले संथारा करने वाले अनशनी को धर्म-कथा सुनाने वाले (यदि बीमार ने अनशन ले लिया हो तो) वादी १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. अग्र-द्वार पर खड़े रहने वाले ग्लान के योग्य गौचरी लाने वाले ग्लान के योग्य पानी लाने वाले ग्लान का उच्चार (मल) आदि परठने वाले ग्लान का प्रस्रवण (मूत्र) आदि परठने वाले आगन्तुकों को धर्मकथा कहने वाले द्वार ७१ x x x x x Jain Education International (४) For Private & Personal Use Only (४) (४) (४) (४) (४) (४) (४) (४) (४) (४) चारों दिशाओं में रक्षा हेतु खड़े रहने वाले सहयोधी आदि पूर्वोक्त सभी कार्यों में चार-चार साधुओं की टोली होती है । अत: कुल मिलाकर अड़तालीस साधु होते हैं। (४) अन्यमतानुसार– उच्चार, प्रस्रवण ( मल-मूत्र ) इन दोनों के परठने वाले चार-चार साधु अलग से नहीं होते किन्तु दोनों कार्यों के लिए सम्मिलित चार साधु होते हैं तथा उपद्रव से रक्षा करने वाले साधु चारों दिशाओं में एक-एक नहीं किन्तु दो - दो होते हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर अड़तालीस साधु होते हैं । साधुओं के कार्य १. उत्सर्गत: अनशनी साधु स्वयं ही करवट बदले परन्तु यदि उसकी शक्ति न हो तो परिचारक साधु उसकी करवट बदले । उसे उठाना, बिठाना, बाहर ले जाना, अन्दर लाना, उसकी उपधि की प्रतिलेखना करना इत्यादि कार्य भी वे ही साधु करें । २. लोगों की भीड़ से अनशनी मुनि को असमाधि न हो, इस कारण अन्दर के द्वार पर चार मुनि खड़े रहें ताकि लोग सीधे अनशनी के पास न जायें । ३. अनशनी के अनुकूल, सुखदायक स्पर्श वाला, समाधि-संवर्द्धक संथारा बिछावे । www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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