SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२८ द्वार ७०-७१ प्रमाणविषय जघन्य उत्कृष्ट गच्छ प्रमाण प्रतिपद्यमान ३ गच्छ २०० से ९०० गच्छ पुरुष प्रमाण प्रतिपद्यमान x १५ पुरुष २००० से ९००० पुरुष पुरुष प्रमाण प्रतिपद्यमान _ *१-२ पुरुष +२०० से ९०० पुरुष गच्छ प्रमाण कोटि पृथक्त्व कोटि पृथक्त्व पुरुष प्रमाण पूर्वप्रतिपन्न कोटि पृथक्त्व कोटि पृथक्त्व जघन्य से तीन गच्छ एक साथ इस कल्पका स्वीकार करते हैं और एक-एक गच्छ में पाँच-पाँच साधु होते हैं। अत: जघन्य से पुरुष प्रमाण ३ x ५ = १५ होता है। * पाँच साधु इस कल्प को स्वीकार करते हैं, किन्तु उनमें से एक-दो साधु बीमार हो जाएँ तो उन्हें पुन: गच्छ को सौंप दिया जाता है। उनके स्थान पर दूसरे एक या दो मुनि कल्प को स्वीकार करते हैं तब प्रतिपद्यमान पुरुषों की संख्या जघन्य से १..२ मिलती है। + यदि सभी गच्छ में रुग्ण मुनि के स्थान पर एक-दो नये मुनि कल्प का स्वीकार करें तो उत्कृष्ट रूप से प्रतिपद्यमान पुरुष भी २०० से ९०० हो सकते हैं। जिनकल्पिक व स्थविरकल्पिक यथालंदिकों में भेद • जिनकल्पी-यथालंदिक(i) मारणान्तिक वेदना में भी चिकित्सा नहीं करवाते । (ii) शारीरिक शुद्धि नहीं करते, यहाँ तक कि आँख का मैल भी नहीं निकालते । • स्थविरकल्पी-यथालंदिक (i) कल्प स्वीकारने के बाद यदि कोई मुनि रुग्ण हो जाये तो उसे चिकित्सा के लिए पुन: गच्छ को सौंप देते हैं। गच्छवासी मुनि भी निरवद्य आहार-पानी के द्वारा उसकी सम्पूर्ण परिचर्या करते हैं तथा अपनी संख्या की पूर्ति के लिए गच्छ में से किसी विशिष्ट संघयणी को कल्प स्वीकार करवाते हैं। स्थविरकल्पी यथालंदिक एकपात्रधारी तथा वस्त्रधारी होते हैं। यथालंदिकों में जिनकल्प स्वीकार करने वाले कुछ आत्मा वस्त्रधारण करते हैं तो कुछ आत्मा निर्वस्त्र ही रहते हैं। कुछ पात्रधारी हैं तो कुछ करपात्री हैं ॥ ६२३-६२८ ॥ ७१ द्वार : निर्यामक उव्वत्त दार संथार कहग वाईय अग्गदारंमि । भत्ते पाण वियारे कहग दिसा जे समत्था य ॥६२९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy