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________________ प्रवचन-सारोद्धार ३२७ के बाहर एकान्त प्रदेश में....मूलक्षेत्रगत अन्य वसति में..अन्तत: मूलवसति में ही एकान्त में धारणाकुशल यथालंदिक को अवशिष्ट सूत्रार्थ की वाचना दें। कल्पचूर्णि में कहा है कि_ 'आचार्य पहले गच्छवासी मुनियों को सूत्र व अर्थपोरिसी देकर पश्चात् यथालंदिकों को वाचना दें। यदि गच्छवासी मुनियों को दोनों पोरिसी देकर यथालंदिकों के पास जाने में समर्थ न हो तो गच्छवासियों को सूत्रपोरिसी स्वयं दे और अर्थपोरिसी देने का काम योग्य शिष्य को सौंपकर स्वयं यथालंदिकों को अर्थपोरिसी दें। यदि ऐसा करना भी सम्भव न हो तो गच्छवासियों को दोनों पोरिसी देने का काम योग्य शिष्य को सौंपकर स्वयं यथालंदिकों को वाचना दें।' यदि आचार्य क्षेत्र से बाहर जाने में सर्वथा अक्षम हों तो यथालंदिकों में से जो धारणा कुशल हो, वह अंतरपल्ली के बाह्य क्षेत्र में आवे और आचार्य वहाँ जाकर यथालंदिक को वाचना दें। आचार्य के आहारपानी की व्यवस्था मूलक्षेत्र से साधु संघाटक करे। आचार्य वैकालिक (संध्या) समय में पुन: मूलवसति में आवे। यदि आचार्य ऐसा करने में भी समर्थ न हो तो क्रमश: अंतरपल्ली और प्रतिवृषभ गाँव के मध्य...प्रतिवृषभ गाँव के बाहर..मूल गाँव की अन्य वसति में....अन्तत: मूल वसति के एकान्त स्थान में वाचना दे ॥ ६१९-६२१ ॥ क्षेत्र में यथालंदिक के आने के दोष (i) यथालंदिक कल्प की मर्यादा है कि वे आचार्य को छोड़कर अन्य किसी को वन्दन नहीं करते, प्रत्युत गच्छवासी मुनि बड़े होने पर भी उन्हें वन्दना करते हैं। यह देखकर लोग निन्दा करे कि ये कैसे लोग हैं जो बड़ों से वन्दना करवाते हैं..स्वयं प्रतिवन्दन भी नहीं करते। (ii) गच्छवासी मुनियों के प्रति लोगों को शंका हो सकती है कि ये मुनि दुःशील होंगे तभी तो ये आत्मार्थी मुनि इन्हें वन्दना नहीं करते। (iii) अथवा गच्छवासी मुनियों के लिये सोचे कि ये साधु कितने आत्मार्थी हैं जो इन्हें वन्दन करते हैं और ये कैसे अक्कड़ हैं कि बोलते भी नहीं हैं। सूत्रार्थ पूर्ण होने के बाद यथालंदिक गच्छ से मुक्त होकर अपने कल्प के अनुसार विचरण करते हैं ।। ६२२ ॥ ३. भिक्षाचर्या-शीतोष्ण काल में यथालंदिक जिस गाँव में रहते हैं उस गाँव को छ: वीथी में विभक्त कर एक वीथी में पाँच दिन तक भिक्षा के लिये जाते हैं और वसति ग्रहण भी वहीं करते हैं। प्रतिदिन उद्धृत आदि पाँच एषणा में से किसी एक के अभिग्रहपूर्वक भिक्षा ग्रहण करते हैं। वर्षाकाल में-चार मास पर्यंत एक ही वसति में रहते हैं। शेष पूर्ववत् । पंचकल्पचर्णि में कहा है कि 'गाँव को छ: वीथी में विभक्तकर एक-एक वीथी में ५-५ दिन भिक्षा के लिये भ्रमण करते हैं व वहाँ ही वसति ग्रहण करते हैं। भिक्षा ग्रहण एषणा के अन्तिम ५ प्रकार में से प्रतिदिन अलग-अलग प्रकार से ग्रहण करते हैं।' वीथी = भिक्षामार्ग अर्थात् भिक्षार्थ गमन करने की पद्धति विशेष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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