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द्वार ७०
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हैं वे गच्छ-अप्रतिबद्ध हैं। ये दोनों ही जिनकल्पी और स्थविरकल्पी के भेद से पुन: दो-दो प्रकार के
(i) जिनकल्पी–यथालंदिक कल्प की समाप्ति के पश्चात् जिनकल्प स्वीकार करते हैं। (ii) स्थविरकल्पी-यथालंदिक कल्प की समाप्ति के पश्चात् पुन: स्थविर-कल्प स्वीकार करते
दोनों ही प्रकार के यथालंदिक एक स्थान पर शीतोष्णकाल में पाँच दिन व वर्षाकाल में चार मास ठहरते हैं। यदि गाँव बड़ा हो तो शीतोष्णकाल में एक ही गाँव को छ: पंक्तियों में वि एक-एक पंक्ति में पाँच दिन ठहर सकते हैं और भिक्षा भी पाँच दिन उसी पंक्ति से ले सकते हैं। इस प्रकार छ: पंक्तियों में एक मास पूर्ण हो जाता है यदि गाँव छोटा हो तो समीपवर्ती गाँवों में पाँच-पाँच दिन रहकर महीना पूर्ण कर सकते हैं।
गच्छ प्रतिबद्ध यथालंदिकों का क्षेत्रावग्रह जिस आचार्य की निश्रा में वे रहते है, उन आचार्य के अवग्रह से अलग नहीं होता अर्थात् इनका क्षेत्रावग्रह ५ कोश का होता है। किन्तु जो गच्छ से अलग हैं उनका जिनकल्पी की तरह कोई क्षेत्रावग्रह नहीं होता ।। ६१४-६१७ ।।
२. सूत्र विषयक-सूत्र विषयक भेद गच्छ-प्रतिबद्ध यथालंदिक जैसा ही है। सूत्रों के अर्थ का . कुछ भाग ग्रहण करना शेष रह गया हो तो यथालंदिक को गच्छ-प्रतिबद्ध रहना पड़ता है ॥ ६१८ ॥ .
प्रश्न—सूत्रार्थ पूर्ण करने के पश्चात् ही कल्प स्वीकार करना चाहिये? पहले क्यों स्वीकार करते
उत्तर-शुभ लग्न, शुभ योग, चन्द्रबल आदि नजदीक में न मिलते हों तो सूत्रार्थ की समाप्ति से पूर्व ही कल्प को स्वीकार कर लेते हैं।
यथालंद कल्प को स्वीकार करने के पश्चात् यथालंदिक गच्छ से निकलकर गरु के अवग्रह क्षेत्र से दूर रहकर विशिष्ट विरक्तिपूर्वक स्वीकृत कल्प का पालन करते हुए अवशिष्ट सूत्रार्थ को ग्रहण करें। सूत्रार्थ ग्रहण करने की विधि
उत्सर्गत: आचार्य स्वयं यथालंदिक के क्षेत्र में जाकर उन्हें सूत्र व अर्थ की वाचना दें। यदि आचार्य जंघाबल क्षीण होने के कारण वहाँ जाने में असमर्थ हो तो यथालंदिक मुनि स्वयं अन्तरपल्ली आचार्य के क्षेत्र (मूलक्षेत्र) से ढाई कोश दूर स्थित गाँव में, प्रतिवृषभ गाँव = मूलक्षेत्र से दो कोश दूर स्थित भिक्षागमन योग्य गाँव में..मूलक्षेत्र से बाहर...मूलक्षेत्रगत अन्य वसति में...कदाचित् मूल वसति (जहाँ आचार्य का निवास हो) में भी आते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि आचार्य यथालंदिक के पास जाकर वाचना देने में समर्थ न हो तो यथालंदिकों में जो धारणाकुशल हो वह अन्तरपल्ली में आवे और आचार्य वहाँ जाकर उसे वाचना दें। साधुसंघाटक आचार्य को आहारपानी मूलक्षेत्र से लाकर वहाँ दे। सायंकाल में आचार्य अपने मूलक्षेत्र में लौट आवें। यदि आचार्य अन्तरपल्ली तक भी न आ सकें, तो क्रमश: अन्तरपल्ली व प्रतिवृषभ गाँव के मध्य...प्रतिवृषभ गाँव में....प्रतिवृषभ गाँव व मूलक्षेत्र के मध्य.. मूलक्षेत्र
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